खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) - 26

1942 बनाम 1973 बनाम 2025 कुछ तो समान है

Manish Kumar Singh
Manish Kumar Singh
September 22, 2025
Rahul Gandhi के Gen Z बयान पर विवाद, क्या बढ़ेगा भारत में विद्रोह? - News18  हिंदी

राहुल गांधी ने GEN-Z का जिक्र क्या किया तो कुछ लोगों को देश में गृह युद्ध के आसार नजर आने लगे तथा राजनीतिक दल के तौर पर भारतीय जनता पार्टी भी कहने से नहीं चूकी कि वे देश के भीतर एक ऐसा संघर्ष सड़क पर पैदा करना चाहते हैं जिससे अराजकता की स्थिति में जाकर देश खड़ा हो जाय। सवाल लाजिमी भी है। ऐसा कहते वक्त पहली बार लगा कि एक तरफ राजनीतिक सत्ता खड़ी है तो दूसरी तरफ विपक्ष का नेता खड़ा है। क्योंकि प्रेस कांफ्रेंस में राहुल गांधी ने एक बार भी ना तो कांग्रेस का नाम लिया ना ही इंडिया गठबंधन का नाम लिया। राहुल गांधी ने देश की मौजूदा राजनीतिक सत्ता से संविधान और लोगों को प्राप्त संवैधानिक अधिकारों को बचाये रखने के लिए देश के युवाओं, छात्रों को आगे आने का आव्हान किया। चूंकि हाल ही में भारत के पड़ोसी राज्य नेपाल में जिस तरीके से सत्ता परिवर्तन हुआ उसने देश के भीतर भी नेपाल, श्रीलंका तथा बांग्लादेश में हुए तख्तापलट की यादों को ताजा कर दिया है। सवाल यह भी आकर खड़ा हो गया कि क्या भारत की राजनीतिक परिस्थिति इस मुहाने पर आकर खड़ी हो गई है कि सम्पूर्ण क्रांति के तर्ज पर, जैसा कभी लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने नारा दिया था, युवाओं तथा छात्रों को आगे आने का आव्हान करना पड रहा है। यह बात अलहदा है कि भारत में लोकतंत्र की जड़े इतनी गहरी हैं कि यहां पर भले ही राजनीतिक परिस्थितियां बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल की तरह बद से बदतर भी हो जाएं तब भी इन देशों में हुआ तख्तापलट भारत में संभव नहीं है। मगर यह बात सौ टका सही है कि अगर देश का युवा और छात्र एकजुट होकर राजनीतिक सत्ता की खिलाफत करने सड़क पर उतर आये तो किसी भी सत्ता को भले ही वह तानाशाही सत्ता ही क्यों न हो उसे गद्दी छोड़नी ही पड़ती है और ऐसा भारत के भीतर भी हो चुका है। भारत के भीतर राजनीतिक सत्ता परिवर्तन के लिए युवाओं, छात्रों को सामने आने का ऐलान जिस तर्ज पर राहुल गांधी ने किया उससे पहले ऐसा ही आव्हान 1942 के बाद पहली बार 1973 में जयप्रकाश नारायण ने किया था और भारत के भीतर सत्ता परिवर्तन को सफल करके भी दिखाया था। तो सवाल यह भी है कि क्या 50 साल बाद फिर से वैसी ही राजनीतिक परिस्थिति देश के सामने आकर खड़ी हो गई है जहां विपक्ष के नेता को राजनीतिक सत्ता परिवर्तन के लिए युवाओं, छात्रों को एकजुट होकर सामने आने का आव्हान करना पड़ रहा है।

सम्पूर्ण क्रान्ति की खोज में मेरी विचार-यात्रा - My Journey in Search of  Complete Revolution (Set of 2 Volumes) | Exotic India Art

जयप्रकाश नारायण ने अपनी किताब "विचार यात्रा" में इसका उल्लेख भी किया है। 1973 के आखिरी महीनों में जब जयप्रकाश नारायण आचार्य विनोबा भावे के आश्रम पहुंचे तो वहां पर उन्होंने एक परचा लिखा था या कह सकते हैं कि एक अपील की थी देश के छात्रों और युवाओं के नाम जिसे उन्होंने नाम दिया था "यूथ फार डेमोक्रेसी" यानी "लोकतंत्र के लिए युवा"। जयप्रकाश नारायण की उस अपील का असर बहुत जल्द गुजरात के भीतर ही एक कालेज में बढ़ी हुई फीस के विरोध में देखने को मिला जिसने आगे चलकर स्थानीय मुद्दों के साथ ही राष्ट्रीय मुद्दों को अपने में समेट लिया और बिहार आते - आते तो यह सम्पूर्ण क्रांति के रूप में तब्दील हो गया था। 1973 के दौर में देश की बागडोर सम्हालने वाली श्रीमती इंदिरा गांधी एक तानाशाह की तरह राज कर रही थीं, राज्यों के मुख्यमंत्री साड़ियों की तरह बदले जा रहे थे, बेरोजगारी थी, मंहगाई थी और इन सबसे बढ़कर कानून के राज के ऊपर इंदिरा का राज चल रहा था। इन परिस्थितियों को लेकर जयप्रकाश नारायण चिंतित और निराश थे लेकिन उन्होंने महसूस किया कि जिस तरह से दुनिया भर के युवाओं के भीतर एक बैचेनी भरी छटपटाहट है। एक सूत्र में पिरोकर उसे एक दिशा देकर अराजक सत्ता से देश को मुक्ति दिलाई जा सकती है। यही सोचकर उन्होंने विनोबा भावे के आश्रम में बैठकर एक परचा लिखा जिसे "यूथ फार डेमोक्रेसी" का नाम दिया गया। उन दिनों गुजरात में भी चिमनभाई पटेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सत्ता थी। जिसका पूरा मंत्रीमंडल भृष्टाचारियों से भरा पड़ा था। बेकारी, बेरोजगारी, मंहगाई से जनता परेशान थी। युवा सड़कों पर उतरकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर इस्तीफे की मांग कर रहे थे मगर उनके पास मार्गदर्शक नहीं था। जेपी के परचे में उन्हें आगे का रास्ता दिखा। उन्होंने एक समिति बनाई जिसे "नव निर्माण समिति" का नाम दिया गया। उन्होंने जयप्रकाश नारायण को आमंत्रित किया और जेपी उनके बीच गये भी। वहां उन्होंने युवाओं -छात्रों से संवाद करते हुए पूछा कि आपने समिति तो बना ली उसका नामाकरण भी कर दिया "नव निर्माण समिति" लेकिन आपका विजन क्या है, रूप रेखा क्या है और आप जिस तरह से विधानसभा भंग कर चुनाव की मांग कर रहे हैं तो क्या चुनाव पुरानी लीक पर होंगे। सारी बातों पर गहन विचार विमर्श हुआ जेपी ने उन्हें टिप्स दिये। और गुजरात के छात्रों ने पहली बार अपनी मांगों के साथ राष्ट्रहित की मांगों को शामिल कर संघर्ष की शुरुआत की। उन्हें जनता का भी समर्थन मिला। चिमनभाई पटेल को गद्दी छोड़नी पड़ी। चुनाव में सत्ता कांग्रेस से निकलकर कांग्रेस (आर्गनाइजेशन) के पास चली गई। जिस पर जयप्रकाश नारायण ने कहा कि स्वराज के बाद पहली बार एक राजनीतिक परिवर्तन गुजरात में हुआ है। गुजरात आंदोलन ने भारत में लोकतंत्र के विकास की दिशा में मार्ग संशोधन का एक पुरुषार्थ किया है और इस शोध का सार तत्व यह है कि संसदीय लोकतंत्र में भी केवल इसके निष्क्रिय वाहक ही नहीं बने रहने चाहिए, चुने हुए प्रतिनिधियों से जवाब तलब करने वाले सक्रिय और अंत में प्रतिनिधियों की कार्यवाहियों पर अंकुश लगाने वाले सही मायने में डेमोस हैं यानी लोग हैं। गुजरात आंदोलन ने भारत में पहली बार लोकतंत्र के तंत्र में लोक का महत्व स्थापित किया, आम जनता की आकांक्षाओं का प्रतिपादन किया और वह भी तमाम संगठित राजनीतिक दलों के बावजूद उनसे ऊपर उठकर। और शायद इसीलिए आखिर में उन्होंने लिखा भी राजशक्ति से जनशक्ति सर्वोपरि है, राजशक्ति जनशक्ति के अधीन है। गुजरात आंदोलन के बाद भारत और भारतीय लोकतंत्र का स्वरूप आंदोलन के पहले वाला नहीं रहेगा यह तय है और हुआ भी वही।

जानें 18 मार्च 1974 को ऐसा क्या हुआ, जिस कारण पड़ी जेपी आंदोलन की नींव -  jayprakash movement jp aandolan bihar movement of student started from 18  march 1974 tedu - AajTak

गुजरात के बाद जब बिहार में आंदोलन शुरू हुआ और पटना कालेज के भीतर जब लाठियां चली तो छात्र जयप्रकाश नारायण के पास (कदम कुआं) गये और उनसे अपने आंदोलन की अगुवाई करने का निवेदन किया तब जयप्रकाश नारायण ने छात्रों से केवल और केवल सिर्फ एक ही वादा लिया कि छात्र हिंसा नहीं करेंगे और छात्रों ने भी कहा कि वे हिंसा नहीं करेंगे। इसके बाद जेपी ने आंदोलन की बागडोर अपने हाथ में ली। जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में आंदोलन युनिवर्सिटी के संकट, राज्य के मुख्यमंत्री के सवालों से होता हुआ राष्ट्रीय तौर पर आगे बढ़ता चला गया। इस दौर में देश ने इमर्जेंसी को भी देखा। इसी दौर में ही देश के भीतर ये नारा गली-गली गूंजायमान हुआ "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है"। इंदिरा गांधी के तालिबानी शासन का तख्तापलट हुआ। जयप्रकाश नारायण ने जब आंदोलन शुरू किया था तो उनके जहन में कुछ इस तरह के सवाल रहे होंगे। दुनिया भर में युवकों के बीच बेचैनी है, भारत में लोकतंत्र पर खतरा है, निर्वाचन प्रणाली दूषित हो चुकी है, चुनाव बहुत मंहगा हो गया है, राजनीति में जातिगत स्वार्थों की शह पर होने वाला बल प्रयोग बड़ा मायने रखता है। यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि उस समय जेपी के दिमाग में 1942 में महात्मा गांधी द्वारा किया गया "भारत छोड़ो" आंदोलन भी था। उन्होंने कहा कि 1942 1973 नहीं हो सकता लेकिन देश के भीतरी हालात तो आज भी (1973) ऐसे ही बने हुए हैं जैसे 1942 में थे तो इनको निपटाने के लिए आंदोलन की शक्ल में आगे बढ़ा जा सकता है। इसीलिए उन्होंने विनोबा भावे के आश्रम में बैठकर परचा लिखा यानी युवाओं और छात्रों से सामने आने की अपील की और नाम दिया "यूथ फार डेमोक्रेसी" यानी "लोकतंत्र के लिए युवा"।

Removed Indira Gandira Government under the leadership of JP Lalu Nitish  are the product of movement Why student organizations marginalized today  जेपी के नेतृत्व में पलट दी थी सत्ता, लालू-नीतीश उसी आन्दोलन

जयप्रकाश नारायण 1973 की जिन परिस्थितियों में राजनीतिक सत्ता को डिगाने का जिक्र कर रहे थे तो उन परिस्थितियों में और मौजूदा परिस्थितियों में क्या कोई तालमेल हो सकता है ? इंदिरा राज को मोदी राज के समकक्ष रखा जा सकता है क्या ? हाँ कहा जा सकता है कि मौजूदा राजनीतिक सत्ता उसी तर्ज पर चल पड़ी है। यानी 50 बरस पहले की परिस्थितियां फिर से आकर मुंह बाये खड़ी हो गई हैं। इसीलिए राहुल गांधी बतौर लीडर आफ अपोजीशन बार-बार छात्रों और युवाओं से इस बात का जिक्र करते हुए कह रहे हैं कि जब उन्हें यह समझ आ जायेगा कि उनको ही लोकतंत्र को बचाने के लिए, संविधान की रक्षा करने के लिए आगे आना है तो वे जरूर आगे आयेंगे। यानी भारत इंदिरा गांधी से नरेन्द्र मोदी तक की परिस्थितियों, जयप्रकाश नारायण से राहुल गांधी तक की परिस्थितियों और देश के भीतर लोकतंत्र तथा चुनाव के बीच की राजनीतिक परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फंस चुका है। पिछले 8-10 बरस से एक सिस्टम के जरिए हिन्दुस्तान की डेमोक्रेसी को हाईजैक किया जा चुका है। इसीलिए राहुल गांधी एक परिवर्तन का जिक्र तो करते हैं लेकिन वो ये भी जानते हैं कि मौजूदा समय में कांग्रेस सहित तमाम राजनीतिक दलों में भृष्ट नेताओं की एक लम्बी कतार है। यह कतार संसदीय विशेषाधिकार पाने के कारण इतनी करप्ट हो चुकी है कि एक भी नेता ऐसा नहीं मिलेगा जो करोडपति से कम हो, उसका जुड़ाव जनता से कट चुका है वह अपने में ही मस्त है। इसीलिए विधानसभा और संसद में विधायक और सांसद के भीतर जनता को लेकर जो बेचैनी 
होनी चाहिए नदारत रहती है। शायद यह बात राहुल गांधी को अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान बखूबी समझ आई होगी और हो सकता है वहीं से जनता के लिए बेचैनी पैदा हुई हो।

questioned Democracy what agents doing Rahul Gandhi allegations caused stir  within Congress 'लोकतंत्र पर ही सवाल उठा दिए, एजेंट क्या कर रहे थे?' राहुल  गांधी के आरोपों से कांग्रेस में ...

राहुल गांधी को यह भी समझ में आने लगा है कि तमाम राजनीतिक प्रयोगों के बाद मिल रही लगातार चुनावी असफलता के बाद भी अगर बड़ा राजनीतिक परिवर्तन हुआ है तो वह आंदोलन के जरिए ही हुआ है, युवाओं की भागीदारी से ही सुनिश्चित हुआ है चाहे वह इमर्जेंसी के बाद की परिस्थिति रही हो या मंडल-कमंडल की परिस्थिति रही हो। मौजूदा वक्त में राहुल गांधी को इतना तो समझ में आ गया है कि अगर बिहार में समूची जनता साथ खड़ी नहीं होती है तो तेजस्वी यादव केवल जातीय समीकरण के आसरे अपने बलबूते चुनाव नहीं जीत सकते हैं क्योंकि चुनाव आयोग ने चुनाव के सारे तौर तरीके मौजूदा सत्ता को लाभ पहुंचाने के लिए तैयार कर रखे हैं। यही स्थिति उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के सामने भी है। राहुल गांधी को यह भी पता है कि तमाम राजनीतिक दल अपने-अपने बूते जहां भी आगे बढ़ेंगे वहां पर राजनीतिक सत्ता उन्हें रोक देगी क्योंकि वह खुद भी कभी न कभी राजनीतिक सत्ता का हिस्सा रह चुके हैं । हां अगर जनता तय कर ले तो एक फिर नये तरीके की राजनीतिक परिस्थितियां देश में पनप सकती हैं शायद इसीलिए बार बार जिक्र किया जा रहा है युवा ताकत का, भारत के नागरिकों का तथा खुले तौर पर चुनाव आयोग को चुनौती भी यह कहते हुए दी जा रही है कि जिस दिन जनता जाग गई उस दिन आपका क्या होगा ? राहुल गांधी का कहना है कि मैं हिन्दुस्तान की जनता को, हिन्दुस्तान के युवाओं को सच्चाई दिखा सकता हूं ये मेरा काम है। उनके जो इंट्रेस्ट हैं, ये जो संविधान है वह हिन्दुस्तान की जनता का रखवाला है। सुरक्षा कवच है। मैं संविधान को बचाने में लगा हुआ हूं। हिन्दुस्तान की जनता को, युवाओं को एकबार ये पता लग गया कि वोट चोरी हो रही है तो उनकी पूरी ताकत लग जायेगी उसे रोकने के लिए।

Lok Nayak Jaiprakash Narayan Biography Death Anniversary Struggle For Life  400 Dacoit Surrender In Front Of Government Officials-जय प्रकाश नारायण के  घर अचानक पहुंच गया था चंबल का इनामी डकैत, अड़ गया

जिस बात को 50 बरस पहले जयप्रकाश नारायण ने लिखा था कि दुर्भाग्य से लोगों के नागरिक जीवन के लिए जरूरी यह स्थिति आज अनेक तरफ से खतरे में है। सबसे गंभीर खतरा निर्वाचन प्रणाली के दूषित होने से है। लोकतंत्र में चुनाव का महत्व जनता की वजह से ही है। जनता ही बीज स्वरूप है। चुनाव से ही लोग अपने शासक को चुनने के लिए अपने सर्वोपरि जन्मसिद्ध अधिकार का इस्तेमाल करते हैं लेकिन आज चुनाव का केन्द्र बिंदु लोक और लोकतंत्र की प्रक्रिया से अलग हट गया है ना ये जनता से जुड़ा है ना ये डेमोक्रेसी से जुड़ा है आज भी वही परिस्थिति देश के सामने मुंह बाये खड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी चंदे की प्रक्रिया को असंवैधानिक तो करार दे दिया मगर असंवैधानिक तरीके से लिये गये रुपयों जप्ती तो की नहीं तो राजनीतिक दल आज भी उसी अवैधानिक रुपयों के बल पर चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करते रहते हैं। दोपायों की खरीद फरोख्त करते रहते हैं। यानी एक पूरी प्रक्रिया करप्ट और तानाशाही तरीके से पूरे सिस्टम को खत्म कर चुकी है। ये सवाल जेपी के दौर में भी था आज भी है। जेपी ने लिखा है कि वास्तव में लोकतंत्र के लिए युवा को संगठन के बजाय आंदोलनजदा होना चाहिए।  तब के दौर में इंदिरा गांधी की खिलाफत करने वाले सारे राजनीतिक दल जेपी के पीछे खड़े हो गए थे यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी जेपी आंदोलन को समर्थन दे रहा था। लेकिन इस दौर में कई राजनीतिक दल अपनी स्वार्थपूर्ति के चलते वैचारिक मतभेद के बाद भी सत्ताधारी पार्टी के साथ गलबहियाँ डाले ईलू-ईलू कर रहे हैं। सवाल किसी राजनीतिक दल या उससे जुड़े नेता का नहीं है सवाल देश को सम्हालने का है। सवाल देश की राजनीतिक परिस्थितियों में एक बड़े बदलाव और ट्रासंफार्मेशन का है। क्या उस दिशा में युवा बढ़ेगा ? उस दौर और इस दौर की परिस्थिति में सामंजस्य यही दिखता है कि जयप्रकाश नारायण की राह पर राहुल गांधी हैं तो उस वक्त की इंदिरा गांधी की राह पर नरेन्द्र मोदी हैं लेकिन दोनों परिस्थितियों में इस दौर का युवा उस दौर के युवाओं से इसलिए मात खा रहा है क्योंकि उस वक्त का युवा मौजूदा वक्त में राजनीतिक सत्ता के साथ खड़ा है वो बिहार के नेताओं की कतार है।

लोकसभा में राहुल गांधी के उठाए सवाल लोकतंत्र के लिए क्‍यों जरूरी हैं -  Junputh

शायद इसीलिए इतिहास अपने आपको दुहराते हुए 50 बरस बाद आकर ड्योढ़ी पर खड़ा होकर एकबार फिर युवाओं को लेकर सवाल खड़े कर रहा है। वह भी तब जब इस वक्त भारत दुनिया में सबसे युवा देश है और युवाओं की ताकत, युवाओं की संख्या, युवाओं का संकट, युवाओं की त्रासदी ये सब कुछ युवाओं से ही जुड़ी हुई है तो फिर देश की जनता को, युवाओं को, छात्रों को और GEN - Z को ही तय करना पड़ेगा और यह भारत के राजनीतिक बदलाव की यह एक अनोखी और सुखद हवा होगी। क्योंकि इस दौर में युवाओं से जुड़े मुद्दों को मौजदा सत्ता द्वारा कहीं आंका ही नहीं जाता है। असमानता, मंहगाई, बेकारी, बेरोजगारी कोई मायने ही नहीं रखती है । सत्ता की करीबी कार्पोरेट के साथ है। उसके लिए उनका मुनाफा और मुनाफे की अर्थनीति ही मायने रखती है। लोक कल्याण लाभार्थी में तब्दील हो गया है यानी सत्ता के ऊपर निर्भर मौजूदा वक्त की परिस्थिति में देश टिका हुआ है और मौजूदा सत्ता को बनाये रखने के लिए देश के संवैधानिक संस्थान काम कर रहे हैं। जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि हो सकता है सत्ता में बैठे हुए (जो कुर्सियों पर बैठे हुए) हैं उनको ऐसा संघर्ष गैर संवैधानिक और लोकतांत्रिक विरोधी लगे (मौजूदा वक्त में सत्ताधारी दल बीजेपी यही कह रही है) लेकिन मुझे ये लगता है कि इसे भले ही संविधान के दायरे से बाहर का चाहे कह लो लेकिन इसे गैर संवैधानिक नहीं कह सकते यह लोकतांत्रिक विरोधी भी नहीं है। वास्तव में जब संवैधानिक परिस्थितियां या लोकतांत्रिक संस्थायें लोगों के दुख दर्द को मिटाने या उनके सवालों का उपयुक्त जवाब प्रस्तुत करने में असफल हो जाती हैं तो जनता इसके अलावा कर भी क्या सकती है। 
 


अश्वनी बडगैया अधिवक्ता 
स्वतंत्र पत्रकार

94 views 0 likes 0 dislikes

Comments 0

No comments yet. Be the first to comment!