खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) - 31

कैसे मिलेगी सुप्रीम कोर्ट आ रही न्यायिक सड़ांध से निजात ?

Manish Kumar Singh
Manish Kumar Singh
October 16, 2025
Bharat ki Nyaypalika,Judiciary of india,भारत की न्यायपालिका

भारतीय न्यायपालिका की पहचान तो यही रही है कि न्याय का ककहरा लिखते वक्त जाति, धर्म, लिंग, सम्प्रदाय कुछ भी मायने नहीं रखता है लेकिन मौजूदा वक्त में उछाले जा रहे राजनीतिक जूते ने इस नकाब को भी नोचकर फेंक दिया है और चंद दिन पहले ही भावी सीजेआई ने उस पर अपनी मोहर भी लगा दी है ! गजब का देश है भारत जहां दैवीय शक्तियां पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, दलितों का मानमर्दन करने का हुक्म दे रही हैं, हालात यहां तक हो चले हैं कि अल्पसंख्यक, आदिवासी, पिछड़ा, दलित देश की सबसे बड़ी अदालत का मुखिया हो या देश का प्रथम नागरिक उसकी औकात जूते से भी कम आंकी जा रही है । दुनिया में एक ओर तानाशाही देश में लोकतंत्र की लौ को जलाये रखने वाले को नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा जा रहा है तो वहीं दूसरी ओर लोकतांत्रिक देश की डींगे भरने वाले देश में मौजूदा राजनीतिक सत्ता द्वारा खुद को बरकरार रखने के लिए लोकतंत्र को जूते की नोक पर रखा जा रहा है। लोकतंत्र के पिलर और लोकतांत्रिक संस्थानों ने एक - एक करके मौजदा राजनीतिक सत्ता की चौखट पर अपना माथा टेक चुके हैं बाकी रह गया था न्यायालय तो उसने भी अपना जमीर मौजूदा राजनीतिक सत्ता के आगे गिरवी रखने के संकेत देने शुरू कर दिये हैं। चंद दिनों बाद तो पूरा सरेंडर देखने को मिलने वाला है !

वर्ष 1861 में खुला था दिल्ली पुलिस का पहला थाना, चोरी की हुई थी पहली  रिपोर्ट - ncr Delhi Police first police station was opened in year 1861  first report was of theft

सेवा में, 

थाना प्रभारी, पुलिस स्टेशन, सेक्टर 11, चंडीगढ़ - विषय - श्री शत्रुजीत सिंह कपूर डीजीपी हरियाणा और नरेन्द्र विजारिणिया आईपीएस एसपी रोहतक के खिलाफ धारा 108 बीएनएस 2023, एससी-एसटी एक्ट एवं अन्य प्रासंगिक प्रावधानों के तहत श्री वाई पूरन कुमार की दुखद मौत के संबंध में एफआईआर दर्ज करने का अनुरोध। सर/मैडम - अकथनीय दुख से दबे हुए हृदय, न्याय में हिलते विश्वास के साथ मै श्रीमती अवनीत पी कुमार आईएएस 2021 बैच हरियाणा स्वर्गीय वाई पूरन कुमार आईपीएस की पत्नी आपको न केवल एक लोकसेवक के रूप में बल्कि सबसे बढ़कर एक शोक संतप्त पत्नी और एक माँ के रूप में लिखती हूं, जो एक परिवार पर पड़ने वाली सबसे बड़ी त्रासदी का अनुभव कर रही हूं। मैं एफआईआर दर्ज करने, अभियुक्त की तत्काल गिरफ्तारी के लिए शिकायत प्रस्तुत कर रही हूं। मेरे पति को उनके दलित पहचान की वजह से इतना सताया और उकसाया गया कि 7 अक्टूबर 2025 को उन्होंने आत्महत्या कर ली। उस दिन मैं जापान की आधिकारिक यात्रा पर थी और दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बारे में जानकारी मिलने पर भारत वापस आ गई। इसलिए मैं आज यानी 8.10.2025 को शिकायत दर्ज करा रही हूं। मेरे पति जो बेदाग ईमानदारी और असाधारण सार्वजनिक भावना वाले एक आईपीएस अधिकारी थे। 7 अक्टूबर 2025 को हमारे घर पर गोली चलने से मतृ पाये गये। हालांकि आधिकारिक कहानियां खुद जान देने का संकेत देती हैं। मेरी आत्मा एक पत्नी के रूप में न्याय के लिए रोती है, जिसने वर्षों तक व्यवस्थित अपमान देखा और सहा है। हरियाणा के डीजीपी श्री शत्रुजीत सिंह कपूर सहित वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा मेरे परिवार पर किये गये उत्पीड़न की कई शिकायतें हैं। मेरे पति का दर्द छिपा हुआ नहीं था और ये उनके द्वारा दायर की गई अनेक शिकायतों से स्पष्ट है कि उन्होंने जाति आधारित भेदभाव को सहन किया और करते ही जा रहे थे। मेरे पति को ये बात पता चली और उन्होंने मुझे इसकी जानकारी दी कि डीजीपी हरियाणा श्री शत्रुजीत सिंह कपूर के निर्देश पर उनके विरुद्ध एक षड्यंत्र रचा जा रहा है और झूठे साक्ष्य गढ़कर उन्हें तुच्छ और शरारतपूर्ण शिकायत में फंसाया जायेगा। डीजीपी हरियाणा श्री शत्रुजीत सिंह कपूर के निर्देश पर उनको मृत्यु से ठीक पहले क्रूरता पूर्वक धारा 308 (3) बीएनएस 2023 के तहत एक झूठी एफआईआर पुलिस स्टेशन अर्बन स्टेट रोहतक में दिनांक 6.10.2025 को मेरे पति के स्टाफ सुशील के खिलाफ दर्ज की गई। सुनियोजित साजिश के तहत उनके खिलाफ सबूत गढ़ के उक्त मामले में मेरे पति को फंसाया जा रहा था। जिसमें उन्हें अपनी जान देने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस संबंध में उन्होंने डीजीपी श्री शत्रुजीत सिंह कपूर से सम्पर्क किया था, उनके साथ बातचीत की थी लेकिन डीजीपी ने इसे दबा दिया। इसके अलावा मेरे पति ने नरेन्द्र विजारिणिया एसपी रोहतक को भी फोन किया था लेकिन उन्होंने जानबूझकर उनके फोन का जबाब नहीं दिया। आठ पन्नों का उनका अंतिम नोट एक टूटे हुए मन का दस्तावेज है, जो इन सच्चाइयों और कई अधिकारियों के नामों को उजागर करता है जिन्होंने उन्हें इस हद तक पहुंचा दिया। मेरे पति को जो उत्पीड़न सहना पड़ा उसके बारे में वो मुझे बताया करते थे। मेरे बच्चों और मैंने जो खोया उसके लिए शब्द ढूंढ़ना असंभव है। एक पति, एक पिता, एक ऐसा व्यक्ति जिसका एकमात्र अपराध सेवा में ईमानदारी थी। एक अधिकारी के रूप में जिसने अपना सब कुछ अपने कैरियर की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया है। मुझे अब उन्हीं संस्थानों पर भरोसा रखना चाहिए, जिन्हें मैंने और मेरे पति ने अपने सर्वश्रेष्ठ वर्ष दिए हैं। उपरोक्त के अतिरिक्त मेरे पति ने बार-बार जाति आधारित गालियों, पुलिस परिसर में पूजा स्थलों से बहिष्कार, जाति आधारित भेदभाव, लक्षित मानसिक उत्पीड़न और सार्वजनिक अपमान तथा वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचार को बर्दाश्त किया। मैं आपके ध्यान में ये भी लाना चाहती हूं कि ये स्थापित कानून है कि उत्पीड़न, अपमान और मानहानि के निरंतर कृत्य भी उकसावे के दायरे में आ सकते हैं केवल तत्कालिक घटनाओं की ही नहीं बल्कि समग्र परिस्थितियों की भी जांच की जानी चाहिए कि प्रशासनिक उत्पीड़न किसी व्यक्ति को किस हद तक जान देने पर मजबूर कर सकता है। दलित पहचान के आधार पर मेरे पति को परेशान करना अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के तहत एक गंभीर अपराध है। मैं सिर्फ अपने परिवार के लिए ही नहीं बल्कि हर ईमानदार अधिकारी के जीवन और सम्मान के मूल्य के लिए भी गुहार लगा रही हूं। ये कोई साधारण मामला नहीं है बल्कि मेरे पति जो अनुसूचित जाति से आते थे, ताकतवर और उच्च पदस्थ अधिकारियों द्वारा उनके व्यवस्थित उत्पीड़न का सीधा नतीजा है, जिन्होंने अपने पद का इस्तेमाल करके उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया और अंततः उन्हें इस हद तक धकेल दिया कि उनके पास जान देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। इसलिए मैं आपसे अनुरोध करती हूं कि कृपया हरियाणा के डीजीपी श्री शत्रुजीत सिंह कपूर और रोहतक के एसपी नरेन्द्र विजारिणिया आईपीएस के खिलाफ धारा 108 बीएनएस 2023 और अनुसूचित जाति - जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम और अन्य प्रासंगिक प्रावधानों के तहत एफआईआर दर्ज करें और बिना किसी देरी के उन्हें तुरंत गिरफ्तार करें क्योंकि दोनों आरोपी शक्तिशाली व्यक्ति हैं और प्रभावशाली पदों पर बैठे हुए हैं, वो स्थिति को अपने पक्ष में करने के लिए सभी प्रयास करेंगे जिससे सबूतों से छेड़छाड़ और गवाहों को प्रभावित करने सहित जांच में बाधा डालना भी शामिल है। न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। हमारे जैसे परिवारों के लिए जो शक्तिशाली लोगों की क्रूरता से टूट गये हैं। मेरे बच्चों को जबाब मिलना चाहिए। मेरे पति के दशकों की जनसेवा सम्मान की हकदार है, खामोशी की नहीं। अवनीत पी कुमार आईएएस स्वर्गीय वाई पूरन की पत्नी।

Justice BR Gavai: कौन हैं बुल्डोजर एक्शन पर सवाल उठाने वाले जज बीआर गवई, जो  बनेंगे देश के अगले मुख्य न्यायाधीश | Moneycontrol Hindi

ये उस पत्र का हिन्दी मजमून है जो उन्होंने अंग्रेजी में लिखा है। ये मामला ठीक उस घटना के बाद घटित हुआ है जिसकी स्याही अभी सूखी भी नहीं है। चीफ जस्टिस आफ इंडिया जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई जो कि दलित समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं उन पर वकील राकेश किशोर द्वारा सुप्रीम कोर्ट के भीतर चल रही सुनवाई के दौरान जूता फेंकने से पहले एक दलित युवक हरिओम बाल्मीकि को पीट-पीट कर मार डाला गया। यह भी गजब का संजोग है कि तीनों घटनायें दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश (रायबरेली) में घटी हैं जहां पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। इसके पहले भी मध्यप्रदेश में एक आदिवासी युवक पर बीजेपी विधायक के प्रतिनिधि द्वारा पेशाब करने, बिहार में दलित नाबालिक लडकियों के साथ दुष्कर्म और चाकू से गोदकर हत्या करने के मामले सामने आ चुके हैं। जहां तक आरोपियों को सजा दिये जाने का सवाल है उसका उत्तर नकारात्मक ही है और जिन दो हाई प्रोफाइल व्यक्तियों के साथ घटित घटना पर होने वाली सजा का सवाल है उसका उत्तर भी नकारात्मक ही होने वाला है। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि जिस देश का प्रथम नागरिक आदिवासी हो और उसे भी समुचित सम्मान न मिल रहा हो तो फिर बाकी तो कीड़े मकोड़े की कतार पर ही खड़े किये जा सकते हैं। जातिवाद के इस घिनौने खेल में न तो आईएएस, आईपीएस की कुर्सी कोई मायने रखती है न चीफ जस्टिस आफ इंडिया की कुर्सी और न ही राष्ट्रपति की। इन ऊंची कुर्सियों पर बैठा हुआ एक भी दलित, पिछड़ा, आदिवासी, अल्पसंख्यक उच्च जातिवादी गिरोह को आजादी के 75 साल बाद भी बर्दास्त नहीं हो पा रहा है और ये मामले वहां ज्यादा दिखाई देने लगते हैं जहां पर संविधान तथा तिरंगे को आंतरिक रूप से ना मानने वाली विचारधारा की पार्टी राज कर रही हैं।

राष्ट्रपति के महिला, दलित या आदिवासी होने से ज़मीन पर क्या असर होता है? -  BBC News हिंदी

यह भी कम सोचनीय नहीं है कि अल्पसंख्यकों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के वोट से सरकार में हिस्सेदार बने बैठे नेताओं की सेहत पर भी जरा सा फर्क नहीं पड़ता है। सोशल मीडिया पर एआई से बनाई हुई शर्मनाक तस्वीर जिसमें सीजेआई के चेहरे पर नीला रंग पोत कर, गले में मटकी लटकाकर गाल पर जूता मारते हुये वायरल की गई और नीले रंग की झंडावरदार नेता उसी भगवा पार्टी का गुणगान कर रही है जिसकी आईटी आर्मी पर इन शर्मनाक हरकतों को अंजाम देने के आरोप लग रहे हैं। इस कतार में बहुजन समाज पार्टी के साथ ही लोक जनशक्ति पार्टी, हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा, सुभासपा, निषाद पार्टी, अपना दल सभी खड़ी हैं। इनको तो इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है कि जिस भीमराव अम्बेडकर का नाम लेकर सत्ता सुख भोग रहे हैं उसी भीमराव अम्बेडकर को मनुवादी विचारधारा के लोग देश का गद्दार कहने से नहीं चूक रहे हैं। तो क्या ये मान लिया जाय कि दलित, पिछड़ा, आदिवासी और अल्पसंख्यक चीफ जस्टिस आफ इंडिया की कुर्सी पर बैठे या राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठे सभी की औकात जूते से भी कम है। मोदी सरकार में दलितों के वोट से जीत कर ऐश कर रहे चिराग पासवान हों या जीतन राम माझी या फिर सुप्रिया पटेल किसी ने भी अपना मुंह खोलने की औकात नहीं दिखाई लेकिन मोदी सरकार में मंत्री रामदास अठावले ने सीजेआई पर किये गये हमले के तार को आरएसएस से जोड़ते हुए कहा है कि सीजेआई बीआर गवई पर फेंका गया जूता उनकी माँ द्वारा आरएसएस के कार्यक्रम में जाने से मना करने से जुड़ता है। उन्होंने कहा कि इस समय दिव्य शक्तियां दलितों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों, आदिवासियों, को अपमानित करने का आदेश दे रही हैं। तो क्या देश में वाकई राम राज्य मोदी राज्य में तब्दील हो चुका है। हरियाणा में भले ही मरने वाला आईपीएस अधिकारी हो लेकिन है आखिर है तो वह दलित ही ना तो फिर वही हुआ है जो होना चाहिए था। एफआईआर दर्ज तो की गई लेकिन नाम किसी का नहीं लिखा गया। धारायें ऐसी लगाई गईं जिससे आरोपी आसानी से बरी हो जायें। सुसाइड नोट में नामित किसी भी अधिकारी को सस्पेंड नहीं किया गया है। सरकार ने लाश को भी अपनी संवेदनहीनता का शिकार बनाने से परहेज नहीं किया शायद का परिणाम है कि वाई पूरन कुमार का अंतिम संस्कार 9 दिन बाद हो सका। डबल इंजन की सरकार की जिद के आगे उसकी पत्नी की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की तरह समाती चली गई ।

भारत में लोकतंत्र का राग गाया जाता है मगर लोकतंत्र के क्या मायने होते हैं और लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए तानाशाही के खिलाफ संघर्ष का क्या मतलब होता है इसकी एक झलक उस समय देखने को मिली जब नाॅर्वेजियन नोबेल समिति सामने आई और उसने ऐलान किया कि इस बार का नोबेल शांति सम्मान एक ऐसी महिला को दिया जा रहा है जिसने गहराते अंधेरे के बीच लोकतंत्र की लौ को जलाये रखा है। नोबेल कमेटी ने कहा जब लोकतंत्र खतरे में हो और हर जगह उसका खतरा बहुत साफ तौर पर दिखाई दे रहा हो तब ये सबसे ज्यादा जरूरी हो जाता है कि उसकी रक्षा की जाए। इस कसौटी पर खरी उतरने वाली वेनेजुएला की मारिया कोरिना मचाडो को 2025 का नोबेल शांति पुरस्कार दिया जा रहा है।

Nobel Peace Prize 2024: नोबेल शांति पुरस्कार का ऐलान, जापान के इस संगठन को  मिला | Norwegian Nobel Committee decided to award the Nobel Peace Prize  2024 to the Japanese organisation Nihon Hidankyo

नाॅर्वेजियन नोबेल समिति की इस घोषणा ने दुनिया भर में इस सवाल को पैदा तो कर ही दिया है कि दुनिया का सबसे ताकतवर देश और उस देश का राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जिसने अपनी दूसरी पारी खेलते हुए पूरी दुनिया को अपनी ऊंगली पर नचाना शुरू कर दिया है और उस खेल में दूसरे ताकतवर देशों को भी चुनौती देते हुए एक नई व्यवस्था का निर्माण भी किया जा रहा है। जिसमें लोकतंत्र के अलावा पूंजी है, मुनाफा है। तब ये सवाल भारत के सामने भी आकर खड़ा हो जाता है कि न्यायपालिका क्या आज कुछ इस तरह से चल रही है जैसे देश में कुछ भी असामान्य नहीं है ? इन परिस्थितियों में भारत के भीतर अलग-अलग मुद्दों को लेकर अलग-अलग मापदंडों के आसरे लोकतंत्र, न्यायपालिका और संविधान पर सवाल खड़े होते रहते हैं। समाज के भीतर नफरत की खींची लकीरें, राजनीतिक तौर पर मुद्दों के आसरे देश के संवैधानिक संस्थानों का ढ़हना और इन सबके बीच न्यायपालिका की एक ऐसी भूमिका जो बार- बार अपने फैसलों से सब कुछ सामान्य होने का अह्सास कराती है जबकि कुछ भी ऐसा है नहीं। देश में शेयर बाजार चलाने वाली संस्था सेबी, देश की जांच ऐजेसियां ईडी, सीबीआई, आईटी, सरकारी विभागों पर आर्थिक निगरानी रखने वाली सीएजी यहां तक देश की राजनीतिक सत्ता ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति वाले पैनल से चीफ जस्टिस आफ इंडिया को बाहर कर दिया है, कहने को तो वह तीन सदस्यीय पैनल है उसमें एक सदस्य विपक्ष के नेता का होना कोई मायने नहीं रखता है क्योंकि उसमें दो सदस्य (बहुमत) तो सत्ताधारी ही हैं खुद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री।

सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि बात उस मानसिकता पर आकर खड़ी हो गई है जहां पर जज की कुर्सी पर तो कोई भी बैठ सकता है लेकिन न्याय तभी होगा जब संविधान के हिसाब से फैसले सुनाये जायें। सुप्रीम कोर्ट के भीतर सीजेआई के ऊपर जिस वकील ने जूता फेंका उस वकील के खिलाफ कोई भी कार्यवाही देश की किसी भी जांच ऐजेंसी (प्रशासन, पुलिस, सरकार) ने कुछ भी नहीं किया। यानी न्यायपालिका, संविधान और लोकतंत्र की रक्षा सब कुछ गायब हो चुकी है। जिस संविधान और लोकतंत्र की वजह से न्यायपालिका का अस्तित्व है उस पर रोज हमला हो रहा है और ये हमला होते - होते अदालत के भीतर जूता उछालने तक पहुंच गया है। देश संविधान से चलता है, संविधान के मातहत कानून का राज है, कानून का पालन कराने के लिए सरकारी ऐजेसियां हैं, संविधान की शपथ लेने वाली सरकार है यहां तक कि संविधान को माथे पर लगाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं और ये सब इस दौर में गायब हो गये हैं। तो क्या वाकई न्यायपालिका, लोकतंत्र, संविधान के अस्तित्व पर सबसे बड़ा संकट है। यानी सवाल लोकतंत्र की लौ को जलाये रखने का भी है।

भारत में न्यायपालिका की भूमिका क्या है? | Khan Global Studies Blogs

हर किसी को पता है कि बीते दशक में जनता से जुड़े हुए महत्वपूर्ण मामले सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर गये और उन पर दिये गये फैसलों से ऐसी हरकत कभी नहीं हुई जैसी बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट के भीतर हुई। न्यायपालिका की सार्थकता तभी होती है जब वह लोकतंत्र के साथ खड़ा हो और लोकतंत्र के साथ खड़े होने का मतलब है संवैधानिक महत्व के मुद्दों को, नागरिक स्वतंत्रता के सवालों को प्राथमिकता के आधार पर ना सिर्फ सुना जाय बल्कि स्पष्ट और साफ शब्दों में ऐसे फैसले निकल कर आयें जो बतायें कि देश संविधान के हिसाब से चलता है। सीजेआई गवई इससे ज्यादा कुछ कह नहीं सकते थे तो कह दिया कि वो बात पुरानी हो गयी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने टेलिफ़ोन पर सीजेआई से बात करके कह दिया कि उनकी खामोशी ने बहुत अच्छा काम किया है। इनसे बेहतर बात तो सीजेआई की बहन ने कही - ये एक व्यक्ति के ऊपर नहीं संविधान, लोकतंत्र के ऊपर हमला है और ये कहना सीजेआई की बहन भर का नहीं है बल्कि ये कहना तो सारे देशवासियों का है। कुछ ऐसी ही बात सीजेआई जस्टिस बीआर गवई की पीठ के सदस्य रहे जस्टिस उज्जवल भुइंया ने भी कही है - - "जस्टिस बीआर गवई देश के चीफ जस्टिस हैं। यह कोई मज़ाक की बात नहीं है। जूता फेंकना पूरे संस्थान का अपमान है" । यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि सुप्रीम कोर्ट की सुरक्षा का दायित्व दिल्ली पुलिस का है और दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय यानी गृहमंत्री अमित शाह के अधीन है। गृहमंत्री अमित शाह के मुख से तो 'जूते' का "जू" तक सुनाई नहीं दिया देश को। संविधान सभा में लंबी चर्चा के बाद एक ऐसा संविधान देश को सौंपा गया है जिसके आसरे भारत में तानाशाही नहीं रेंग सकती है। भारत लोकतंत्र के आसरे ही दुनिया में अपनी पहचान बनायेगा।

नोबेल समिति ने नोबेल शांति पुरस्कार का ऐलान करते हुए बहुत साफ तौर पर कहा कि जिस महिला को नोबेल शांति पुरस्कार दिया जा रहा है (मारिया कोरिना मचाडो) उसने हालिया समय में लेटिन अमेरिका में साहस का सबसे असाधारण उदाहरण पेश किया है। वह भी तब जब दुनिया भर में लोकतंत्र को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं, लोकतंत्र के ऊपर काली छाया मंडरा रही है। तो क्या भारत में भी एक असाधारण तरीके से हिम्मत दिखाने की परिस्थितियां जन्म लेने लगी हैं। सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि भारत की न्यायपालिका के फैसलों में न्यायकर्ता की निजी आस्था की परछाईं भी नहीं पड़नी चाहिए लेकिन कई ऐसे फैसले सुप्रीम कोर्ट की चौखट से बाहर आये हैं जिन्होंने इस आस्था को भोथरा किया है उसमें से अयोध्या का रामजन्मभूमि - बाबरी मस्जिद वाला फैसला भी एक है। राजनीति के लिए जाति, धर्म, लिंग, समुदाय, भाषा,प्रांत सब कुछ मायने रखता है लेकिन जब न्याय का ककहरा यानी फैसला लिखते हैं तो उस वक्त जाति, धर्म, समुदाय, लिंग, भाषा, प्रांत कोई मायने नहीं रखता है लेकिन जिस तरीके से राजनीतिक विचारधारा का जूता उछाला जा रहा है उससे सुप्रीम कोर्ट की चौखट से निकलने वाला हर फैसला भोथरा दिखाई दे रहा है।

Supreme Court Cji Br Gavai Man Tries To Throw Object During Proceedings  News And Updates - Amar Ujala Hindi News Live - Sc:चीफ जस्टिस गवई पर जूता  उछालने की कोशिश करने वाला

सीजेआई जस्टिस बीआर गवई पर फेंके गये जूते की छाया सुप्रीम कोर्ट में वोट चोरी को लेकर सुनवाई कर रही जस्टिस सूर्यकांत (भावी चीफ जस्टिस आफ इंडिया) एवं जस्टिस जे बागची की बैंच के फैसले पर साफ - साफ दिखाई दी । व्यवस्थापिका और कार्यपालिका ने तो वर्षों पहले अपनी विश्वसनीयता खो दी है लेकिन अब न्यायपालिका भी अपनी विश्वसनीयता खोती दिखाई दे रही है जो लोकतंत्र के खात्मे का ऐलान करती नजर आती है। दुनिया में सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश के तौर पर अमेरिका की पहचान है। उसी देश का मौजूदा राष्ट्रपति पूरी दुनिया को अपनी ऊंगली पर नचाते हुए खुद को नोबेल शांति पुरस्कार देने की गुहार लगा रहा था और लोग मानने भी लगे थे कि हो सकता है नोबेल शांति पुरस्कार अमेरिकी राष्ट्रपति को मिल जायेगा लेकिन उसी शांति पूर्ण तरीके से नोबेल समिति ने यह कह कर नकार दिया कि न तो ये नोबेल के विचारों से मेल खाता है और न ही नोबेल सम्मान की पहचान के दायरे में फिट बैठता है। 14 जनवरी 2012 को मारिया कोरिना मचाडो उस समय सुर्खियां में आई थी जब उसने उस वक्त के राष्ट्रपति को उनके भाषण के बीच खड़े होकर उन्हें चोर कहते हुए लोगों की जप्त की गई सम्पति को वापस करने की मांग की थी। भले ही राष्ट्रपति ने मारिया को महिला कहते हुए नजरअंदाज कर दिया लेकिन दुनिया की तमाम बड़ी हस्तियों द्वारा वेनेजुएला के गले में तानाशाही का पट्टा लटका दिया गया। 2024 में मचाडो ने राष्ट्रपति की दावेदारी की जिसे शाजिसन खारिज कर दिया गया। तब मारिया ने दूसरी पार्टी को समर्थन देकर राष्ट्रपति का चुनाव जितवा दिया लेकिन तानाशाही सरकार ने चुनाव परिणाम को मानने से इंकार कर दिया।

वेनेजुएला की मारिया मचाडो को नोबेल शांति पुरस्कार - dainiktribuneonline.com

वेनेजुएला  सरकार की तानाशाही पर नोबेल समिति ने मारिया कोरिना मचाडो को यह कहते हुए नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा कि लोकतंत्र की लौ बुझनी नहीं चाहिए। इसने मौजूदा वक्त में दुनिया की हर सत्ता और शासन व्यवस्था के सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं जिसमें भारत भी अछूता नहीं है। भारत सरकार की तानाशाही प्रवृत्ति, संविधान, लोकतंत्र और न्यायपालिका को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। सवाल ये नहीं है कि सीजेआई जस्टिस बीआर गवई दलित हैं या ब्राह्मण दरअसल वे देश की सबसे बड़ी अदालत के सबसे बड़े न्यायमूर्ति हैं और असहमति का जूता हर मुद्दे पर हर दम उछाला जा रहा है क्योंकि भारत की संसदीय राजनीति उन मुद्दों में उलझ चुकी है जहां उसे लगने लगा है कि राजनीतिक तौर पर चुनावी जीत हार में ही उसकी मौजूदगी उसके अस्तित्व से जुड़ी हुई है। जिसके चलते वे सोच भी नहीं पा रहे हैं कि सवाल तो लोकतंत्र के अस्तित्व का है, सवाल तो संविधान के अस्तित्व का है, सवाल तो आने वाली पीढ़ी को कौन सा भारत सौंपने का है ? यानी भारत में लोकतंत्र, संविधान और न्यायपालिका बचेगा या नहीं बचेगा। क्योंकि देश राजनीतिक सत्ता के आदेशों तले या फिर उसके ईशारों तले एक खामोशी को ओढ़कर राजनीतिक तंद्रा में खो चुका हो तो फिर सवाल खड़े होते हैं कि संसद लोकतंत्र का मंदिर कैसे हो सकती है?, सुप्रीम कोर्ट न्याय का मंदिर कैसे हो सकता है ? जाति, धर्म, सम्प्रदाय, लिंग, भाषा, प्रांत कोई भी हो महत्वपूर्ण तो संविधान ही है और मौजूदा राजनीतिक सत्ता उसका ही बलात्कार करने पर आमदा है ! 

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता 
स्वतंत्र पत्रकार

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