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एक माँ अपने बच्चे को लेकर महात्मा के पास गई और कहा मेरा लड़का गुड़ खाता है आप कह दीजिए कि वह गुड़ न खाया करे। महात्मा ने कहा कि सात दिन बाद आना। माॅं आठवें दिन महात्मा के पास लड़के को लेकर गई और महात्मा ने बालक से कहा बेटा गुड़ मत खाया करो। बालक की मॉं ने महात्मा से कहा कि ये बात तो आप सात दिन पहले भी कह सकते थे तो महात्मा ने कहा कि सात दिन पहले मैं खुद गुड़ खाया करता था इसलिए नहीं कह सकता था। अब जब मैंने खुद गुड़ खाना छोड़ दिया है तभी मैं बालक को गुड़ न खाने के लिए कहने का साहस पैदा कर सका हूं। महात्मा गांधी ने देश के आखिरी छोर पर खड़े आदमी को अध नंगा देखकर ही आधी धोती पहनना और आधी ओढना शुरू किया था। लाल बहादुर शास्त्री ने जब खुद एक टाईम खाना और सप्ताह में एक दिन उपवास रखना शुरू किया था तब जाकर उन्होंने आवाम से सप्ताह में एक दिन उपवास रखने की अपील की थी। कहने का मतलब ये है कि उंचाई पर खड़े व्यक्ति को पहले खुद आदर्श पेश करना होता है तब वह दूसरों से अपेक्षा कर पाता है। और एक भारत के प्रधानमंत्री हैं नरेन्द्र मोदी जो अपने गिरेबां में झांकने के बजाय, जब वे खुद विदेशी वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हैं, उनके आवागमन के सारे साधन विदेशी हैं, उनका खानपान रईसी ठाठबाट का है, देश की जनता को राष्ट्रवाद और राष्ट्रहित की घूंटी पिलाकर स्वदेशी अपनाने का भाषण दे रहे हैं। अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में वाकई राष्ट्रवाद और राष्ट्रहित की जरा भी समझ और इज्जत है तो उनको सबसे पहले खुद विदेशी वस्तुओं का, विदेशी साधनों का और राजसी ठाठ-बाट का त्याग करना चाहिए और उसके बाद ही उन्हें आवाम से स्वदेशी अपनाने की बात कहनी चाहिए। इसके पहले भी उन्होंने 29 मई को गुजरात के गांधीनगर से विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की थी।
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो 2014 के बाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक शाखा स्वदेशी जागरण मंच को अस्तित्वहीन करके रखा हुआ है जबकि उसी स्वदेशी जागरण मंच ने एक समय अटलबिहारी बाजपेई की आर्थिक नीतियों का विरोध करते हुए सरकार की चूलें हिलाकर रख दी थी और तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा की कुर्सी डगमगा गई थी। पिछले दस बरस में मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां लगातार फेल होती चली गई और अब जब अमेरिका से डील लगभग फेल सी हो गयी है और अमेरिका भारत पर 25 फीसदी टेरिफ और जुर्माना लगाने जा रहा है तो अमेरिका परस्त मोदी को स्वदेशी याद आने लगा है जो कि हथेली में सरसों जमाने से भी ज्यादा मुश्किल काम है और वह भी तब जब खुद पीएम मोदी की करनी और कथनी में जमीन आसमान का अन्तर साफ़ - साफ़ दिखाई दे रहा है। पीएम मोदी का मेक इन इंडिया तकरीबन पूरी तरह से चाइना के कच्चे माल पर आश्रित है। जिस दिन चीन कच्चे माल की सप्लाई रोक देगा उसी दिन मेक इन इंडिया की मौत हो जायेगी। यही हाल वोकल फार लोकल का है। अपने कार्पोरेट मित्र को फायदा पहुंचाने के लिए तुगलकी तीन किसान बिल लाकर मोदी सरकार ने पिछले दस बरसों से जिन किसानों को खून के आंसू रुलाये आज वे उसी किसान के पसीने की खुशबु की बात कर रहे हैं पीएम नरेन्द्र मोदी का कथन तो मगरमच्छों को भी शर्मिंदा करके रख देगा, ऐसा न हो कि कुछ मगरमच्छ आत्महत्या न कर लें।
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कश्मीर की वादियों का आनंद लेते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कह रहे हैं कि "हमारे किसान, हमारे लघु उद्योग, हमारे नवजवानों के रोजगार, इनका हित ही हमारे लिए सर्वोपरि है। देशवासियों के अंदर एक भाव जगाना होगा और वो है हम स्वदेशी का संकल्प लें। अब हम कौन सी चीजों को खरीदेंगे, कौन से तराजू से तौलेंगे। मेरे भाईयो बहनों मेरे देशवासियों अब हम कुछ भी खरीदें तो एक ही तराजू होना चाहिए। हम उन चीजों को खरीदेंगे जिसे बनाने में किसी न किसी भारतीय का पसीना बहा है"। 2014 में दिल्ली की सल्तनत हथियाने के लिए लोक लुभावने वादे किये गये थे चुनाव प्रचार के दौरान पीएम वेटिंग नरेन्द्र मोदी के द्वारा। वादा था किसानों की आय दुगनी करने का, वादा किया गया था किसानों से न्यूनतम लागत पर खरीद करने का, वादा किया गया था देश के भीतर में दिहाड़ी मजदूरी मनरेगा से ज्यादा करने का, मगर यह सब कुछ हो नहीं पाया। 15 लाख, अच्छे दिन जुमला करार दे दिए गए मोदी के खासम-खास कहे जाने वाले अमित शाह द्वारा। झारखंड और बिहार की त्रासदी तो यह है कि यहां का किसान दूसरे राज्य में जाकर मजदूर में तब्दील हो जाता है। देश के भीतर रोजगार के अवसर भी 12 हज़ार से 22 हज़ार महीने के बीच अटक कर रह गये। एमएसएमई के जरिए मिलने वाले रोजगार की हालत इतनी खस्ताहाल इसलिए हो गई कि उसको चलाने वाले छोटे और मझोले उद्योगों को चलाने वालों के सामने ही संकट खड़ा हो गया। और दूसरी तरफ कार्पोरेटस् की आय बढ़ती चली गई। देश के भीतर हर प्रोडक्ट पर बड़े-बड़े कार्पोरेट हाउस कब्जा करते चले गए। एक - एक करके देश के पीएसयू प्राइवेट हाथों में चलते चले गए। सरकार अपनी जिम्मेदारी से भागती रही और देश खामोशी से देखता रहा। लोगों की आय नहीं बढ़ी लेकिन कार्पोरेटस् के खजाने के भीतर उनके अपने नेटवर्थ को बढ़ता हुआ दिखाया गया जिससे दुनिया के बड़े - बड़े रईसों की लिस्ट में भारत के भी 100 से ज्यादा नाम शुमार हो गये लेकिन देश के करोड़ों लोग कहां पर कैसे खड़े हैं इसे नजरअंदाज कर दिया गया।
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दुनिया के भीतर मान्यता प्राप्त व्हाइट कालर में रोजगार पाने वाला युवा टेक्नोलॉजी और कम्प्यूटर साइंस की नौकरी पाने की तलाश में भटकता हुआ दुनिया की बड़ी - बड़ी कंपनियों के बीच घुसता चला गया और देश ने ये मान लिया कि उसने प्रगति कर ली है। बीते 10 बरस में भारत के जो भी लाखों छात्र पढ़ाई के लिए दुनिया के दूसरे देशों में गये हैं वे लौटकर भारत नहीं आये हैं। वे वहीं के होकर रह जा रहे हैं। कोई अमेरिका में बस गया तो कोई जर्मनी, फ़्रांस, आस्ट्रेलिया में रह गया। लेकिन चीन के साथ ऐसा नहीं है। वहां के बच्चे शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपने देश चाइना ही लौटते हैं और चीन अपने तौर पर डवलपमेंट का पूरा प्रोसेस शुरू करता है लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता है। भारत में मोदी सरकार तो बीते 10 बरस में हेट, नफरती और अंधविश्वासी शिक्षा देने के लिए किताबों से लेकर शिक्षा पध्दति ही बदलने में लगी हुई है। पुरातन परिस्थितियों को नई हिस्ट्री के साथ पेश करने की बखूबी कोशिश की गई। आज के दौर में स्वदेशी के मायने बदल गए हैं।
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आज स्वदेशी का मतलब है हमें पश्चिमी पूंजी चाहिए, पश्चिमी इंवेस्टमेंट चाहिए, पश्चिम का बाजार चाहिए, पश्चिम के हिसाब से क्वालिफिकेशन चाहिए जिससे उसी रास्ते चलकर उद्योग चलें, प्रगति हो। लेकिन जिस तरह से पीएम मोदी ने स्वदेशी का जिक्र किया उसका साफ मतलब है कि संकट बड़ा हो चला है। इस संकट का मतलब है अमेरिका के साथ जिस टेरिफ डील को लेकर बातचीत चल रही थी वह टूट चुकी है। क्योंकि जिस छठवें चक्र की बातचीत करने के लिए अमेरिकी प्रतिनिधि मंडल 25 अगस्त को भारत (दिल्ली) आने वाला था अब वो नहीं आयेगा। अमेरिका जिस तरह से भारत पर टेरिफ लगाने और भारतीय कंपनियों पर प्रतिबंध लगाने के रास्ते पर चल रहा है उससे आने वाले समय में रोजगार का संकट खड़ा होगा क्योंकि कंपनियां छटनी करेंगी। भारत को अपनी इकोनॉमी बचाने के साथ ही अपने माल को दुनिया के बाजार में पहुंचाना होगा। तो क्या अमेरिका से नाता टूटकर चीन के साथ जुड़ जायेगा? टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में आने वाले चीनी माल का प्रतिशत 22 से लेकर 70 तक होता है। कह सकते हैं कि पूरा का पूरा मेक इन इंडिया चीन पर टिका हुआ है। और आज जब पीएम मोदी मेक इन इंडिया और वोकल फार लोकल का जिक्र कर रहे हैं तो उनके जहन से ये सवाल गायब हो गया है कि बीते 10 बरस में जिस रास्ते चलकर उन्होंने भारत की अर्थ नीति को सहेजा, संवारा है ग्यारहवें बरस में उनकी हथेली खाली है। बात भी सौ फीसदी सही है क्योंकि मोदी सरकार ने बीते दस बरस में ऐसा कुछ नहीं किया है कि देश के ही कच्चे माल से देश में ही माल तैयार हो। टेलीकॉम और स्मार्टफ़ोन बनाने में इस्तेमाल होने वाला 44 फीसदी माल चीन से आता है। लैपटॉप और पीसी में लगने वाला 77 परसेंट माल चीन से आता है। इसके अलावा अन्य सामानों की असेम्बलिंग में यूज होने वाला सामान भी 94 परसेंट तक चीन से ही आता है। जो इस बात को इंगित करते हैं कि भारत अपनी इकोनॉमी और इकोनॉमी पालिसी को लेकर फंसा हुआ है। उसके सामने कोई दूसरा रास्ता नहीं है इसलिए आने वाले वक्त में उसे चीन पर और ज्यादा निर्भर होना पड़ेगा, रशिया से अपने संबंधों को प्रगाढ़ बनाना पड़ेगा। पीएम नरेन्द्र मोदी को आज नहीं तो कल तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के रास्ते चलना ही पड़ेगा जहां उन्होंने भारत की अर्थ नीति को मजबूती देने के लिए न तो अमेरिका की ओर देखा था न ही चाइना की ओर उन्होंने दुनिया के छोटे छोटे देशों के साथ संबंध और सम्पर्क बनाये थे।
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अमेरिका साफ - साफ संकेत दे रहा है कि दुनिया की कोई भी इकोनॉमी अमेरिका के साथ धंधा करके अब उस रईसी को नहीं जी सकती जो जी रही थी और अब यह अमेरिका की नेशनल पालिसी में तब्दील होगी फिर चाहे सत्ता में रिपब्लिकनस् रहें या डेमोक्रेटस्। अमेरिका के भीतर चल रही बहस बहुत साफ तौर पर बता रही है कि अमेरिका किसी भी देश को लाभ उठाने का मौका देगा नहीं। अमेरिका की टार्गेटेट निगाहों में जो टाप सिक्स देश हैं उनमें शामिल हैं चीन, रशिया, भारत, फ्रांस, जर्मनी और जापान। क्या अमेरिका भारत की बढ़ती हुई इकोनॉमी को टार्गेट पर लेने जा रहा है और इसीलिए छठवें दौर की बातचीत बंद कर दी गई है। पैदा हुई नई परिस्थिति के बाद पीएम मोदी खुद मान रहे हैं कि मुश्किल घड़ी है तभी तो कह रहे हैं "आज दुनिया की अर्थव्यवस्था कई आशंकाओं से गुजर रही है। अस्थिरता का माहौल है। ऐसे में दुनिया के देश अपने अपने हितों पर फोकस कर रहे हैं। अपने - अपने देश के हितों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं" । बीते 10 बरस में मोदी सरकार देश से पलायन कर रही योग्यता को रोक पाने में असक्षम रही है। राष्ट्रीय सम्पत्ति, राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय रोजगार भी चुनावी जुमला बनकर रह गये हैं। बीते 11 बरसों का सरकारी आंकड़ा बताता है कि देश के भीतर का 1.3 परसेंट एग्रीकल्चर लैंड रियल एस्टेट को दे दिया गया है। 7 परसेंट कटे जंगल भी उसी रियल एस्टेट के कब्जे में हैं और अब वहां कंक्रीट का जंगल उगा दिया गया है। पब्लिक सेक्टर प्राइवेट सेक्टर के हाथों सौंपे जा चुके हैं। मोदी गवर्नमेंट ने बीते 11 सालों में एकबार भी न तो ह्यूमन रिसोर्स का जिक्र किया है न ही उन्हें रोजगार से जोड़ने का जिक्र किया है। सर्विस सेक्टर पर आने वाला संकट बेंगलुरु, दिल्ली, हैदराबाद, तमिलनाडु आदि शहरों की चमक खत्म कर देगा। सोचने वाली बात है कि 140 करोड़ का देश चीन पर निर्भर है।
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पीएम मोदी स्वदेशी का जिक्र कर रहे हैं, देशी पसीने की बात कह रहे हैं मगर सरकारी आंकड़ा बताता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सुख सुविधा वाला 8.5 करोड़ रुपए के विमान के रखरखाव के सारे कलपुर्जे विदेशी हैं। पीएम मोदी के आगे - पीछे जो 6 गाड़ियों का काफिला चलता है वे सारी गाड़ियां विदेशी हैं। पुराने इंफ्रास्ट्रक्चर को हटाने के लिए जो खरीदारी की जा रही है वह देशी मिजाज की नहीं है। जो यह बतलाता है कि मोदी अभी भी केवल कह ही रहे हैं, करने का इरादा नहीं है। क्योंकि करने की शुरुआत खुद से करनी होगी विदेशी साजो सामान को त्याग कर। हर देश अपना राष्ट्रहित देख रहा है तो भारत को भी अपना राष्ट्रहित देखना होगा। 140 करोड़ की जनसंख्या में 80 से 90 करोड़ लोग एग्रीकल्चर सेक्टर से जुड़े हुए हैं। इंडस्ट्री सेक्टर से जुड़ी हुई तादाद 8 से 10 करोड़ के बीच में है। सरकार ने राष्ट्रवाद का जिक्र किया और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सेनानी की वर्दी में खड़े हो गए तो राष्ट्रहित की बात करने के बाद क्या कल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसान के कपड़ों की शक्ल में पोस्टर पर लटके नजर आयेंगे और राष्ट्रहित हो जायेगा ? टेक्सटाइल, एग्रीकल्चर का 90 फीसदी सामान विदेशों से आता है। मतलब भारत के पास कुछ भी नहीं है। तो सवाल है कि क्या सरकार तैयार है देश के किसानों, मजदूरों को मुख्यधारा की इकोनॉमी से जोड़ने के लिए ? क्या सरकार ऐसी नेशनल पालिसी बनाने को तैयार है जहां पहली प्राथमिकता देश के लोगों की हो (ह्यूमन सोर्स) ? अगर कार्पोरेटस् सरकार के साथ खड़े नहीं होते हैं तो बीते 11 बरसों में मोदी सरकार ने खड़ा किया क्या है ? जिस दिन कार्पोरेटस् ने सरकार से हाथ खींच लिया, जिस पूंजी से देश की राजनीति चलती है, चलाई जा रही है, सत्ता का खेल बनाया और बिगाड़ा जाता है अगर वह डहडहाकर गिर गई तब कौन बचेगा, कौन सम्हलेगा ?
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार