खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) - 14

नीति पर नहीं, नियत पर है हंगामा बरपा

Manish Kumar Singh
Manish Kumar Singh
August 25, 2025
सांसदों के निलंबन और संसद की सुरक्षा में सेंध के बीच कोई संबंध नहीं: लोकसभा  अध्यक्ष ओम बिरला

बुधवार की दोपहर में जैसे ही 2 बजे वैसे ही लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला ने कहा आइटम नम्बर 21, 22, 23 और देश के गृहमंत्री अमित शाह ने खड़े होकर कहा "भारत के संविधान में संशोधन करने वाले विधेयक को पुनर्स्थापित करने की अनुमति दी जाय। महोदय मैं प्रस्ताव करता हूं कि जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 में संशोधन करने वाले विधेयक को पुनर्स्थापित करने की अनुमति दी जाय। महोदय मैं प्रस्ताव करता हूं कि संघ राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम 1963 में संशोधन करने वाले विधेयक को पुनर्स्थापित करने की अनुमति दी जावे"

वैसे तो गृहमंत्री अमित शाह ने सदन के पटल पर तीन विधेयक रखने का प्रस्ताव किया लेकिन सदन के भीतर हंगामा बरपा संघ राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम 1963 में संशोधन करने वाले विधेयक को पुनर्स्थापित करने वाले प्रस्ताव को लेकर। गृहमंत्री ने प्रस्ताव में जिस संशोधन का जिक्र किया है उसमें लिखा है कि "निर्वाचित प्रतिनिधि भारत की जनता की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं उनसै उम्मीद की जाती है कि वो राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठ कर केवल जनहित का काम करें। गंभीर आरोपों का सामना कर रहे, गिरफ्तार और हिरासत में लिए गए किसी भी मंत्री से संवैधानिक नैतिकता और सुशासन के सिद्धांतो को नुकसान पहुंच सकता है। इससे लोगों का व्यवस्था पर भरोसा कम हो जाएगा। गंभीर आपराधिक आरोपों के कारण गिरफ्तार और हिरासत में लिए गए किसी मंत्री को हटाने का संविधान में कोई प्रावधान ही नहीं है। तो इसे देखते हुए प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, केंद्र व राज्य सरकार के मंत्रियों को हटाने के लिए संविधान के अनुच्छेद 75, 164, 239 एए में संशोधन की जरूरत है।

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इसे पढ़ कर तो कोई भी कहेगा कि इसमें क्या गलत लिखा गया है। संविधान में इस तरह का संशोधन तो होना ही चाहिए। क्योंकि केंद्र हो राज्य हर किसी का मंत्रीमंडल गंभीरतम अपराधिक मामलों में आकंठ डूबे हुए माननीयों से भरा पड़ा है। देश देख रहा है कि आज के दौर में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, केंद्र और राज्य के मंत्री सभी कहीं न कहीं दागदार छबि को लिए हुए हैं। तो अगर एक ऐसा कानून बन जाय कि सिर्फ़ 30 दिन जेल में रहने पर कुर्सी चली जाय तो क्या बुरा है। इसमें तो प्रधानमंत्री को भी नहीं बख्शा गया है, उन्हें भी शामिल कर लिया गया है। सवाल है कि तो फिर विधेयक पेश होते ही सदन में हंगामा क्यों बरपा ? हंगामा बरपने के मूल में सरकार की नीति नहीं नियत है। बीते 11 सालों का इतिहास बताता है कि सरकार ने किस तरीके से अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए हर सरकारी ऐजेंसियों का खुलकर दुरुपयोग किया। यहां तक कि विरोधियों को प्रताड़ित करने के लिए अदालतों तक का उपयोग करने में कोताही नहीं बरती गई। सारे देश ने देखा कि किस तरह से ईडी, सीबीआई, आईटी के जरिए विरोधियों के सामने दो विकल्प रखे गए या तो बीजेपी ज्वाइन करिए या फिर जेल के सींखचों के पीछे जाइए। प्रधानमंत्री सरेआम जनता के बीच मंच पर खड़े होकर जिन नेताओं के लिए चक्की पीसिंग - चक्की पीसिंग का जप किया करते थे उनके बीजेपी ज्वाइन करते ही उनके सारे पाप पुण्य में बदल गये और जिन्होंने बीजेपी ज्वाइन नहीं की उन्हें लम्बे समय तक जेल में रहना पड़ा और इसमें अदालतें भी अपना योगदान देने में पीछे नहीं रहीं।

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अजीत पवार, एकनाथ शिंदे, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन, कैप्टन अमरिंदर सिंह, फारूक अब्दुल्ला, भूपेंदर सिंह हुड्डा, बी एस यदुरप्पा, अशोक चव्हाण, मायावती, अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन, सिध्दारम्मैया जैसे न जाने कितने नाम हैं। सिध्दारम्मैया के मामले में तो अदालत को यह तक कहना पड़ा था कि आप ये क्या कर रहे हैं, यहां तक कि उनकी पत्नी को भी लपेटा गया था। ईडी ने तो बकायदा 129 नामों की लिस्ट देश की सबसे बड़ी अदालत को सौंपी जिसमें एमपी, एमएलए, एमएलसी शामिल थे लेकिन ईडी सिर्फ दो मामलों को छोड़कर किसी के भी खिलाफ मामला साबित नहीं कर सकी जिसके लिए उसे जेल भेजा गया था। झारखंड के पूर्व मंत्री हरिनारायण राय जिन्हें 2017 में मनी लांड्रिंग केस में 5 लाख का जुर्माना और 7 साल की सजा सुनाई गई थी। इसी तरह झारखंड के ही एक दूसरे पूर्व मंत्री अनोश एक्का को भी 2 करोड़ रुपए का फाइन और 7 साल कैद की सजा हुई थी। लेकिन डीएमके के ए राजा, कनींमोजी, दयानिधि मारन, टीएमसी के सुदीप बंदोपाध्याय, तपस पाल, अजय बोस, कुणाल घोष, अर्पिता घोष, शताब्दी राय, स्वागत राय, काकोली राय, अभिषेक बैनर्जी, कांग्रेस में रहते हुए नवीन जिंदल, रेवंत रेड्डी, हिमन्त विश्र्व शर्मा  आदि-आदि फेहरिस्त बड़ी लम्बी है ये सारे नाम एक-एक करके गायब होते चले गए।

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सवाल पूछा जा सकता है कि बीजेपी जब 2019 में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में थी तब उसने संघ राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम 1963 में संवैधानिक संशोधन के बारे में नहीं सोचा और जब आज के दौर में सरकार बैसाखी के भरोसे चल रही है तब अचानक से गृहमंत्री ने मंगलवार को सदन के पटल पर अनुच्छेद 75, 164, 239 एए में संशोधन करने का विधेयक पेश कर दिया, आखिर क्यों ? इसकी टाइमिंग और परिस्थितियां बहुत महत्वपूर्ण है। उप राष्ट्रपति जगदीश धनखड को चलता कर दिये जाने के बाद खाली हुई कुर्सी को भरने के लिए चुनाव होने जा रहे हैं। एनडीए ने जहां तमिलनाडु के रहने वाले सीपी राधाकृष्णन, जो वर्तमान में महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं, को अपना उम्मीदवार बनाया है तो वहीं इंडिया गठबंधन द्वारा भी अखंडित आंध्र प्रदेश के पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज बी सुदर्शन रेड्डी को उम्मीदवार बनाया गया है। जहां एनडीए ने राधाकृष्णन को उम्मीदवार बना कर डीएमके पर मानसिक दबाव बनाने की कोशिश की है तो इंडिया गठबंधन ने भी पलटवार करते हुए सुदर्शन को मैदान में उतार कर चंद्रबाबू नायडू और जगन मोहन रेड्डी पर भावनात्मक प्रेसर डालने की चाल चली है। बैसाखी के सहारे चल रही मोदी की सबसे बड़ी बैसाखी चंद्रबाबू नायडू ही हैं। चंद्रबाबू नायडू का राजनैतिक इतिहास बताता है कि वे संभवतः रामविलास पासवान और विद्याचरण शुक्ल के बाद तीसरे राजनेता हैं जिन्होंने डूबती हुई नाव पर सवारी नहीं की है।

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जगन मोहन रेड्डी ने जैसे ही ट्यूट किया कि चंद्रबाबू नायडू हाटलाइन पर सीधे-सीधे कांग्रेस नेता और लीडर आफ अपोजीशन राहुल गांधी से पेंगे लड़ा रहे हैं। दिल्ली दरबार के कान खड़े हो गए। क्योंकि चंद्रबाबू नायडू सत्ता का बैलेंस बनाये रखने के लिए मोदी सरकार की नजर में एक प्यादे बतौर हैं वैसे ही जैसे नितीश कुमार, चिराग पासवान हैं। और अगर ये प्यादे बजीर बन गये तो दिल्ली में बैठी मोदी सरकार को ना केवल मुश्किल होगी बल्कि मोदी सरकार अल्पमत में आकर भूतपूर्व भी हो सकती है । जिस तरह की खबरें इंडिया गठबंधन के खेमे से छनकर आ रही हैं वे मोदी सरकार की धड़कनों को असामान्य बनाने के लिए काफी हैं। खबर है कि बतौर उप राष्ट्रपति पद के लिए पूर्व जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी का नाम चंद्रबाबू नायडू के कहने पर ही फाइनल किया गया है। यानी अब मामला अटकलबाजियों से बाहर निकल कर हकीकत में बदलता हुआ दिखाई दे रहा है। अगर चंद्रबाबू नायडू इंडिया गठबंधन के साथ खड़े हो रहे हैं तो मतलब साफ है कि मोदी की नाव डूब रही है तो फिर डूबती नाव पर सवार क्यों रहा जाय ? राजनीति का सच भी यही है। कल तक उप राष्ट्रपति चुनाव को औपचारिक प्रक्रिया मानने वाले नरेन्द्र मोदी की सांसें तस्वीर पलट जाने से फूली हुई है कि अगर नायडू इंडिया गठबंधन के साथ चले गए तो एनडीए की पूरी राजनीति ध्वस्त हो जायेगी और इंडिया गठबंधन को एक ऐसी जीत मिल जायेगी जो एक झटके में मोदी की बची खुची छबि को भी धूमिल कर देगी क्योंकि राजनीति में प्रतीक बहुत मायने रखते हैं। खुदा ना खास्ता इंडिया गठबंधन ने उप राष्ट्रपति का चुनाव जीत लिया तो यह माना जायेगा कि मोदी अपराजेय नहीं है। विपक्ष में ताकत है और वह एकजुट होकर जीत सकता है और यही डर मोदी सहित बीजेपी नेताओं की नींद उड़ा रहा है।

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दिल्ली से लेकर चैन्नई और हैदराबाद तक हर गलियारे में यही चर्चा है कि क्या नायडू सच में पलटी मार चुके हैं। मगर राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि नायडू पलटी मारने का फैसला तो तब ले सकेंगे न जब उनको ये फुल कांफीडेंस होगा कि पलटी मारने के बाद उनकी अपनी कुर्सी बची रहेगी। अमित शाह द्वारा लाये गये विधेयक के बारे में कहा जा रहा है कि क्यों न ऐसी व्यवस्था कर ली जाय कि पलटी मारने वाला भी गद्दी विहीन हो जाय। वैसे तो चंद्रबाबू नायडू के मामलों की सूची लम्बी है फिर भी तीन बड़े मामलों का जिक्र तो किया ही जा सकता है। पहला मामला ही 371 करोड़ रुपये के सरकारी धन के गबन का ही है। दूसरा मामला स्किल डवलपमेंट स्कैम का है और तीसरा मामला आंध्र प्रदेश की राजधानी अमरावती में एक हजार एक सौ एकड़ जमीन घोटाले से जुड़ा हुआ है। इसमें तो नायडू सहित चार लोगों पर बकायदा आईपीसी की धारा 420, 409, 506, 166, 167, 217, 109 के साथ ही एससी एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया था। वो तो राजनीतिक हवा का रुख भांप कर नायडू ने मोदी की गोदी में बैठकर अंगूठा चूसने में ही भलाई समझी और सारी फाइलों को बस्ते में बांध दिया गया। अगर उन फाइलों को खोल दिया जाय और राज्यपाल को सशक बनाने वाला नया कानून आ जाय और राज्यपाल पहले से दर्ज आपराधिक मामले में संज्ञान लेने की अनुमति दे दें तधा अदालत भी कोताही बरते बिना जेल भेज दे, ठीक वैसे ही जैसे एक वक्त अरविंद केजरीवाल को जेल भेज दिया गया था, ठीक वैसे ही जैसे एक वक्त हेमंत सोरेन को जेल भेज दिया गया था और सरकार के रुख को भांपते हुए 30 दिन जेल की रोटियाँ खिलाई जाती रहें यानी जमानत ना मिले तो 31 वें दिन कुर्सी चली जायेगी।

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तो सवाल उठता है कि क्या चंद्रबाबू नायडू मौजूदा सत्ता की नजर में खलनायक के रूप में सामने आना चाहेंगे या फिर मोदी सत्ता की बैसाखी बने रह कर दक्षिणी राजनीतिक अस्मिता की नजर में खलनायक बनना पसंद करेंगे। चंद्रबाबू के सामने मुश्किल तो है अपनी कुर्सी और अपनी राजनीति, अपने वोट बैंक को बचाये रखने की। फिलहाल गृहमंत्री द्वारा पेश विधेयक जेपीसी को भेज दिया गया है। जिस पर 31 सदस्यीय कमेटी (लोकसभा के 21 एवं राज्यसभा के 10) विचार कर अपनी रिपोर्ट शीतकालीन सत्र में पेश करेगी। अगर इस बीच एक झटके में नायडू अपना समर्थन वापस ले लेते हैं और हिचकोले खाती सरकार की नजाकत को समझते हुए नितीश कुमार, चिराग पासवान, एकनाथ शिंदे और अजित पवार ने भी नायडू की राह पकड़ ली तो इनकी सारी मुश्किलों का समाधान भी हो जायेगा। मोदी सत्ता के सहयोगियों का यह कदम केंचुआ को भी राहत की सांस दे सकता है क्योंकि इस दौर में जिस तरीके से देश भर में केंचुआ की छीछालेदर हो कर साख पर बट्टा लग रहा है उससे बाहर निकलने का रास्ता भी मिल जायेगा। सदन में रोचक परिस्थिति तब पैदा हो गई जब कांग्रेसी सांसद वेणुगोपाल की टिप्पणी पर गृहमंत्री अमित शाह नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगे तो ऐसा लगा जैसे कालनेमि शुचिता का उपदेश दे रहा हो। देश में नैतिकता का पाठ पार्लियामेंट के भीतर से निकले इसकी तो कल्पना भी नहीं करनी चाहिए क्योंकि पूरा देश जानता है कि 16 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा इलेक्टोरल बांड्स के दोषी कौन हैं, हर कोई जानता है कि 10 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा प्रधानमंत्री केयर फंड का दोषी कौन है, हर कोई जानता है कि गुडग़ांव से द्वारका के बीच बनी सड़क में किस तरह से सरकारी खजाने को लूटा गया है, पूरा देश जानता है कि किस तरह से एक ही टेलिफ़ोन नम्बर 9..9..9..9 (दस बार) से 7.50 लाख लाभार्थियों के नाम खास अस्पतालों ने प्रधानमंत्री आयुष्मान योजना से पैसे लिये हैं। इन सारे घपलों घोटालों पर न सरकार ने कोई कार्रवाई की न ही अदालतों ने। यही कारण है कि सदन के भीतर विधेयक पेश होते ही हंगामा होने लगा क्योंकि मोदी सत्ता ने विधेयक पेश कर विपक्ष के साथ ही अपनी बैसाखियों और अपने सांसदों तक को ये मैसेज दे दिया है कि हमको सत्ता से उठाने का आपने तय किया तो चाहे यह कानून न्याय विरोधी, संविधान विरोधी ही क्यों न हो कोई मायने नहीं रखेगा। असली परीक्षा और उसके नतीजे की तारीख 9 सितम्बर तय है जब तय हो जायेगा कि चंद्रबाबू नायडू किस करवट बैठे हैं। फिलहाल तो बीजेपी के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। मोदी का कुनबा और कुर्सी दोनों हिल रही है और इसे हिला रहा है एक ही नाम।

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चलते-चलते

      आईना वही रहता है चेहरे बदल जाते हैं

दूसरों थूका गया थूक खुद पर ही पलट कर आता है या यूं कहें कि इतिहास खुद को दुहराता है केवल किरदार बदल जाते हैं इसका नजारा संसद सत्र के आखिरी दिन लोकसभा और राज्यसभा में उस समय जीवंत हो गया जब लोकसभा में सत्र समापन दिवस पर रस्म अदायगी के लिए पहुंचे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए विपक्ष ने एक स्वर में नारे लगाये "वोट चोर गद्दी छोड़" तथा राज्यसभा में उपस्थित गृहमंत्री अमित शाह के लिए नारे लग रहे थे" तड़ीपार गो बैक - गो बैक" । जो यह बताने के लिए पर्याप्त है कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को ही जरूरत है शुचिता और नैतिकता का पाढ़ पढ़ने की। 

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता 
स्वतंत्र पत्रकार

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