खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) - 20

प्रकृति से लड़ेंगे तो प्रकृति आपको खत्म कर देगी

Manish Kumar Singh
Manish Kumar Singh
September 09, 2025
Uttarakhand Landslide Hinders Chardham Yatra Uttarkashi Cloudburst Dharali  - Amar Ujala Hindi News Live - Uttarakhand:आपदा से थम गईं चारधाम यात्रा की  रफ्तार, धराली में आई आपदा के साथ जगह-जगह ...

पहली बार लोगों के मुंह से सुनने में आ रहा है अब उत्तरांचल खत्म हो गया है, सब कुछ तहस - नहस हो गया है। भृष्टाचार और पूंजी से बड़ा सवाल हो गया है मानसिकता का जिसमें पूरी प्रकृत्ति को अपनी मुट्ठी में कैद कर लेने की ख्वाहिश है। इसके लिए न तो सुरंगों को खोदने से परहेज है ना ही बड़े-बड़े होटल, घर बनाने से परहेज है। मगर अब जब प्रकृत्ति ने नजर टेढ़ी की है तो पहाड़, उस पर खड़े वृक्ष, भवन ऐसे बिखर रहे हैं जैसे माचिस की डिबिया से तीलियां बिखर जाती हैं। चाहे वह उत्तराखंड हो, पंजाब हो, हिमाचल प्रदेश हो, हरियाणा हो या फिर जम्मू-कश्मीर ही क्यों न हो। इन राज्यों में आधुनिक होने और सब कुछ पैसों से खड़ा कर लेने की सोच के बीच परिस्थिति ने ऐसे हालात लाकर खड़े कर दिए हैं कि हर कोई सिर्फ और सिर्फ त्रासदियों को देख रहा है। त्रासदी ने उत्तरांचल, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और दिल्ली तक को अपनी गिरफ्त में समेट लिया है। दिल्ली से सटा हुआ है गुरुग्राम जहां पर जिसे आधुनिकतम तरीके से डवलप किया गया है। इस बार तो यहां का बजट ही तीन हज़ार करोड़ रुपये का है। लेकिन वहां की तस्वीर भी डरा रही है क्योंकि वह भी पानी - पानी हो चुकी है। पंजाब के 12 जिले के हाल बेहाल हैं या फिर हरियाणा का हिसार, सिरसा, यमुना नगर, कुरुक्षेत्र, पंचकूला ही क्यों ना हो यहां पर भी तबाही का मंजर नजर आ रहा है। अभी तक इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं होने की बात होती थी लेकिन इस वक्त तो जिस इंफ्रास्ट्रक्चर को खड़ा किया गया है वही लोगों को अपने आगोश में ले रहा है। अजब विडंबना है कि सब कुछ भोगने के बाद भी किसी की कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं हो रही है न ही आंखों के आंसू से, न ही दिल की भड़ास से न ही जुबां से। जैसे हर कोई सामान्य परिस्थितियों में जी रहा हो या कहें इन सारी परिस्थितियों में जीने का आदी हो चुका है।

भारत के खिलाफ ट्रम्प टैरिफ: जब विदेश नीति सोशल मीडिया पर बड़बोलेपन तक सीमित  हो गई

ऐसे ही जैसे देश के भीतर अब जो नई स्थिति विदेश नीति, कूटनीति और टेरिफ वार के जरिए पैदा हो रही है वह भी इस मायने में हैरतअंगेज है कि अकेले उत्तर प्रदेश में 20 लाख से ज्यादा लोगों के पास काम नहीं बचेगा। टेक्सटाइल्स का क्षेत्र हो या लेदर का सभी के मन में सवाल है कि संघर्ष करें तो कैसे करें। सरकार के बनाये इंफ्रास्ट्रक्चर पर चल कर उसे क्या और कैसे मिलेगा। शायद देश में ऐसी परिस्थिति पहली बार पैदी हुई है। एक तरफ लोग इन विषम परिस्थितियों में अपने भविष्य के बारे मे सोचना शुरू करते हैं तभी देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजनीतिक गालियों (जिसके वे स्वयं जन्मदाता हैं!) को अपने दिल पर लेकर, अपने साथ जोड़कर उस राजनीति को साधने निकल पड़ते हैं जहां पर सिर्फ और सिर्फ उनका दर्द है । जबकि देश के भीतर हर दिन सैकड़ों माओं की मौत के बाद उनके बच्चे अपने दर्द को दिल में समेटे अस्थि विसर्जन करते हैं। देश के भीतर तो राजनीति और दिये गये भाषण हर कोई हर दिन सुन रहा है। जनता को पता है कि गालियां अब पारंपरिक नहीं रहीं, उनकी शैली बदल गई है। पंजाब के किसानों ने जब आंदोलन किया था तब उसमें 600 से ज्यादा किसानों की मौत हुई थी जिसमें 70 महिलायें भी थीं और वे सभी किसी न किसी की मां ही थीं तब पीएम मोदी की जुबान से संवेदना का सं तक नहीं निकला था लेकिन आज नरेन्द्र मोदी सिर्फ और सिर्फ अपनी मां को याद कर रहे हैं और वह भी ऐसे समय में जब देश के आधा दर्जन सूबों में पानी ही पानी है। इन प्रांतों में जो बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया गया है उसकी तबाही का खुला मंजर है।

हिमालय - विकिपीडिया

सरकार उस हिमालय की जमीन को बांध कर अपने अनुकूल करना चाहती है जिसकी इजाजत प्रकृति देती नहीं है। लेकिन उसके बावजूद भी विकसित भारत के नाम पर सपने बेचे जा रहे हैं। आसमान से बरसता पानी और कंक्रीट की सड़कों को सीमेंट की सड़कों में बदलने का कैबिनेट मिनिस्टर का ऐलान जिस पर दौड़ाई जायेंगी सरपट गाडियां तथा पेट्रोल में कैसे मिलाया जायेगा एथेनाॅल लेकिन इकोनॉमी का सच क्या है कोई नहीं जानता है। कोई इसलिए नहीं जानता है क्योंकि किसी को पता ही नहीं है कि इस देश में कितने गरीब हैं, कितनों के पास गाडियां हैं, कितनों की जेब टोल वाली सडकों पर रेंगने की इजाजत देती है, कितने व्हाइट कालर वालों की नौकरी कैसे गायब हो गई। उन्हें पता ही नहीं चला कि लाखों नौकरियां सरकार की नजर अमेरिका से हटकर चीन की तरफ चले जाने के बाद चली गई। डाॅलर की जगह रूबल देखने में गुम हो गई। एससीओ की बैठक के आसरे खुद को अंतरराष्ट्रीय राष्ट्राध्यक्ष के तौर पर मान्यता देने के लिए खुद ही आगे आये लेकिन देश के भीतर की हकीकत क्या है इसका पता ही नहीं है। 2021 में होने वाली जनगणना 2025 तक (5 साल बाद) भी शुरू नहीं हो पाई अब शायद 2031 का इंतजार है। सरकार को ही पता नहीं है कि देश के भीतर का डाटा क्या है। सवाल जन्म - मृत्यु दर से आगे का है, सरकार ही नहीं जानती कि कितने लोगों की मौत हो जाती है प्राकृतिक आपदा से, नौकरियां चली जाने से। सरकार अपने जिस इंफ्रास्ट्रक्चर के रास्ते देश को बनाना चाहती है क्या वो रास्ता इतना घातक है कि हर किसी को अस्थि विसर्जन के लिए घाटों पर खड़ा कर रहा है। ऐसा हो सकता है। क्योंकि सरकार का मुखिया अपनी आंखें बंद कर सिर्फ और सिर्फ अपने दर्द को ही देश का दर्द बताना चाहता है। शायद उसने मान लिया है कि वह ही देश है। इसीलिए डूबता हुआ पंजाब, तैरता हुआ हरियाणा, मिटता हुआ हिमाचल, दम तोड़ता हुआ जम्मू-कश्मीर मदद कीजिए की गुहार लगा रहे हैं लेकिन खुद को देश का प्रधान सेवक कहने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस बात से चिंतित हैं कि उनकी मां को लेकर उन्हें गाली दी गई जिसका जिक्र पूरी नाटकीयता के साथ बिहार की एक सभा में किया गया। पीएम की भर्राई आवाज पर प्रदेशाध्यक्ष को भी तो कुछ करना जरूरी था सो उन्होंने अपनी आंखों से पानी बहाना शुरू कर दिया क्योंकि चंद महीने के भीतर ही बिहार में चुनाव होना है। वह भी उस बिहार में जिसकी आर्थिक स्थिति देश में सबसे नाजुक है, हर दूसरा आदमी गरीबी रेखा के नीचे है, गरीब है, बेरोजगार है, सबसे ज्यादा विस्थापन बिहार में ही होता है। बिहारी शब्द का राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल करने से सियासत भी चूकती नहीं है ।

आवरण कथा, खतरे में हिल स्टेशन: शिमला और मनाली की तबाही के लिए दोषी कौन?

पहाडों से, नदियों से, पूंजी बनाने के लिए जमीनों से खिलवाड़ और उसके आसरे चकाचौंध और दुनिया की बड़ी इकोनॉमी बनने के सपने की राजनीति ने देश को कितना खोखला कर दिया है। देश अपने सबसे बुरे हालात में जी रहा है। हिमाचल में 60 बरस का रिकॉर्ड टूट रहा है। किस तरह से पहाड़ ने पूरे गाँव को लील लिया। कल तक जो गांव था वहां पर धड़कनें बची ही नहीं। जम्मू-कश्मीर के भीतर प्राकृतिक आपदा ने चौतरफा तहस नहस कर रखा है। हरियाणा के भीतर का पानी विभाजन के दौर की याद दिला रहा है। इस तरह की भयावह परिस्थितियों के बीच क्या किसी ऐसे नेता की जरूरत है जिसे दिल से यह महसूस हो रहा हो कि उसे राजनीतिक दलों के मंचों से मां की गाली दी गई जिसे वह राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर देश को ऐसे समझा रहे हैं जैसे देश में अपढ - कुपढ लोगों की जमात है। जिन पांच राज्यों में तबाही का मंजर खुलेआम नजर आ रहा है उनमें बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर पर ही 20 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किये गये हैं। इसके भरोसे जमीनों की कीमत को आसमान की ओर उछाल कर उसे उन दरवाजों की चौखट पर उतारा गया जहां पर रोटी - पानी तक के लाले पड़े हैं तो वह अपनी रोटी - पानी के जुगाड़ में जमीन बेच देगा। पैसा है तो आप सब कुछ खरीद बेच सकते हैं और रईसी में जी रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने बचपन की गरीबी के इमोशनल ब्लैकमेलिंग का कार्ड फेंट रहे हैं। भारत के भीतर न तो गरीबी की कोई लकीर है न ही खींची जा सकती है। गरीबी रेखा का मतलब आईएमएफ़ और वर्ल्ड बैंक के आंकड़े नहीं हैं। गरीबी की हकीकत सुल्तान की नाक के नीचे देखी जा सकती है। गाजीपुर में लगे कूड़े के पहाड़ पर कूड़ा चुनते लोगों को देख कर, कूड़ा घर में सुबह - सुबह वहां पर फेके गए खाने को बटोर कर खाते हुए लोगों को देख कर समझा जा सकता है देश की गरीबी का आलम यानी गरीबी का कोई पैमाना नहीं है। देश तो सिर्फ और सिर्फ इतना जानता है कि 140 करोड़ की आबादी में 80 करोड़ की आबादी ऐसी है जो 5 किलो आनाज भी खरीदने की हालत में नहीं है इसलिए उसे 5 किलो अनाज मुफ्त दे दिया जाता है।

Bharat ki janganana-2011 | Census of India-2011 | भारत की जनगणना-2011

2011 में हुई जनगणना के अनुसार देश में 120 - 121 करोड़ लोग थे और उसके बाद शामिल हुए 19 - 20 करोड़ लोगों के बाद से एक तरफ देश की अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक आर्थिक स्थिति ने जितना विपन्न बनाया दूसरी तरफ भारत की राजनीति उतनी ही रईस हुई । कोविड काल में जब देश के चारों खूंट लोग मर रहे थे तो उसी समय दिल्ली के भीतर हजारों करोड़ रुपये का सेंट्रल विस्टा सिर्फ और सिर्फ इसलिए बन रहा था क्योंकि यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जिद थी कि अब संसद नई इमारत में ही सजेगी। उसी दौर में पीएम केयर फंड में जिसमें हजारों करोड़ों रुपये बिना किसी हिसाब - किताब के कारपोरेस्, इंटरनेशनल इंडस्ट्रिलिट्स, देशभर के सरकारी कर्मचारियों के वेतन से जबरिया कटौती कर जमा किया गया यानी एक नैक्सस सिस्टम के लिहाज से तैयार किया कि कोई कुछ कहे नहीं और एक ही शक्स वही देश है, सिर्फ और सिर्फ उसकी माँ ही देश की मां है। आजादी के सौ बरस होने पर विकसित भारत का सपना है, अगले पांच साल में तीसरे नम्बर की इकोनॉमी बनने की सोच है यानी सब कुछ पूंजी के आसरे है लेकिन वह जमीन नहीं है जहां पर देशवासी सांस लेते वक्त ये सोच कर सांस ले पायें कि वो सुरक्षित हैं, उनकी जमीन सुरक्षित है, कोई उन्हें लालच देकर घर से बेदखल नहीं करेगा। उनके इर्द गिर्द के पेड़, पहाड़, नदियां सब कुछ सुरक्षित रहेगी। लोगों की नौकरियां और देश की इकोनॉमी पालिसी पटरी पर चलेगी लेकिन इस दौर में ये सब कुछ गायब है क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रुदन कर रहे हैं। 

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता 
स्वतंत्र पत्रकार

77 views 0 likes 0 dislikes

Comments 0

No comments yet. Be the first to comment!