
सितम्बर का महीना वाकई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए इम्तिहान का महीना रहा है और अभी तक उनने जो मुख्यतः चार परीक्षाएं दी हैं उन परीक्षाओं के नतीजे सामने आये हैं और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन चारों परीक्षाओं में फेल हो गये हैं। मसलन एथेनाॅल के जरिए केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी को घेरने की परीक्षा हो या फिर वनतारा जू के मार्फत कार्पोरेट मुकेश अंबानी को घेरे में लेने की कवायद हो या कह लें केंचुआ के मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के कांधे पर बंदूक रखकर सुप्रीम कोर्ट और संविधान को चुनौती देने का सवाल हो तथा वक्फ कानून के नाम पर राजनीतिक पहेलियों को हल करने के सवाल हों उनकी कापियां जांच कर सुप्रीम कोर्ट ने 15 सितम्बर यानी 17 सितम्बर के दो दिन पहले या कहें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जन्मदिन के 48 घंटे पहले रिजल्ट डिक्लेयर कर दिया है। जिसका लब्बोलुआब यही है कि चारों पर्चों में पीएम मोदी फेल हो गये हैं।

एथेनाॅल को लेकर जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी और उनके बेटे को कटघरे में खड़ा किया गया था और उसको लेकर देश में तो यही संदेश गया कि दिल्ली सत्ता नितिन गडकरी को यही मैसेज देना चाह रही है कि पार्टी के भीतर और संघ तथा कार्पोरेट के साथ मिलकर आप जो खेल खेल रहे हैं उसको बंद कर हट जाईये वरना आपको पता ही है कि सरकार के हाथ बहुत बड़े और पैने होते हैं। उस याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। इसी तरह की एक याचिका देश के सबसे बड़े रईसों में शुमार मुकेश अंबानी के बेटे अनंत अंबानी के द्वारा चलाए जा रहे वनतारा जू में हो रही अनियमितताओं को लेकर दाखिल की गई थी। जिस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आनन-फानन में एक हाई लेबल एसआईटी गठित करते हुए 12 सितम्बर को जांच रिपोर्ट दाखिल करने की समय सीमा निर्धारित की थी जिसकी रिपोर्ट भी तय समय पर कोर्ट में पेश कर दी गई। उस याचिका को भी सुप्रीम कोर्ट ने एक झटके में यह कहते हुए खारिज कर दिया कि कोई मामला नहीं बनता इसलिए अब इस पर आगे कोई सुनवाई नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट में वनतारा जू को लेकर दाखिल की गई याचिका को लेकर भी यही मैसेज कन्हवे हुआ था कि असल में इसके पीछे मुकेश अंबानी पर नकेल कसना था। यह बात अलहदा है कि एथेनाॅल और वनतारा जू पर आया फैसला संदेह के घेरे में है। फैसला आने के पहले ही कयास लगाए जाने लगे थे कि सुप्रीम कोर्ट इन दोनों मामलों में कोई भी ऐसा फैसला सुनाने से परहेज करेगा जिससे सत्ता असहज हो जाये और देश के भीतर राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने जैसी परिस्थिति पैदा हो। वैसे सुप्रीम कोर्ट को अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए एथेनाॅल और वनतारा जू में एसआईटी की रिपोर्ट के जरिए जो तथ्य सामने आये हैं उन्हें जनसामान्य के लिए सार्वजनिक करना चाहिए।

वक्फ कानून में किये जा रहे संशोधनों के जरिए सरकार की मंशा तो यही दिख रही थी, वह ही तय करेगी कि भारतीय मुसलमानों को कैसे रहना है, कैसे जीना है, उसके तौर तरीके क्या होंगे। वक्फ की संपत्ति भी सरकार तय करेगी तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संदेश दे दिया है कि सरकार अपनी मनमर्जी से सब कुछ तय नहीं कर सकती है। वक्फ कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित कर लिया था जिसे 15 सितम्बर को डिक्लेयर करते हुए कहा गया कि हम अंतरिम तौर पर वक्फ़ कानून को पास कर देते हैं लेकिन उसमें जोड़े गए कई प्रावधानों पर तब तक के लिए रोक लगा देते हैं जब तक केन्द्र और राज्यों से नियम दिशानिर्देश बनकर नहीं आ जाते हैं। जहां पर मस्जिद है वो जमीन कोई सी भी हो मस्जिद वहीं रहेगी। इसी तरह से मंदिर, गुरूद्वारा भी वहीं पर रहेंगे। सरकार चाहती थी कि कलेक्टर के जरिए यह तय किया जाय कि कौन सी जमीन किसकी है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा नहीं यह कलेक्टर तय नहीं करेगा। सरकार वक्फ के भीतर यह सोचकर जिन प्रावधानों को लेकर आई थी कि चलेगी तो उसी की, जिले में कलेक्टर ही सर्वेसर्वा होगा, गवर्नेंस के तौर तरीके जिस तरह से देश के भीतर सामाजिक और धार्मिक संगठनों पर रोक लगाने की ओर कदम बढ़ा रहे थे सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में उन पर रोक लगा दी है।

वक्फ कानून में लाये जा रहे कुछ प्रावधानों पर रोक लगाने के बाद आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य सैय्यद कासिम रसूल ने त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने हमारे द्वारा ध्यानाकर्षित कराते समय व्यक्त की गई आशंकाओं पर भी गौर फर्माते हुए कई बातों को स्वीकार किया है। मसलन वक्फ वाय यूजर वाली हमारी बात मान ली गई है। कोई थर्ड पार्टी क्लेम नहीं होगा इसे भी मान लिया गया है। 5 साल की कैद को हटा दिया गया है। आर्विटरी खत्म नहीं होगा। कौन सी सम्पति वक्फ की है इसका फैसला वक्फ बोर्ड ही करेगा। राज्य आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में गैर मुस्लिम सदस्यों की संख्या तीन और केन्द्रीय आल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड में गैर मुस्लिम सदस्यों की संख्या चार से ज्यादा नहीं होगी। इस बात का जिक्र किया गया था कि कलेक्टर को यह तय करने का अधिकार दिया जाना चाहिए कि घोषित वक्फ सम्पत्ति सरकारी है या नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने कहा बिल्कुल नहीं। नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकारों पर फैसला देने की अनुमति कलेक्टर को नहीं दी जा सकती है। अगर ऐसा किया गया तो इससे अधिकारों का प्रतिकरण सिद्धांत यानी सेपरेशन आफ पावर का उल्लंघन होगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि जब तक नियम नहीं बन जाते तब तक वक्फ सम्पत्ति घोषित करने से पहले 5 साल तक इस्लाम का अनुयायी होने की जो शर्त है उस पर भी स्टे लगाया जाता है। सरकार ने प्रावधान किया था कि ऐसी सम्पत्ति या जमीन जिस पर सरकार काबिज हो और उस पर वक्फ बोर्ड भी वक्फ सम्पत्ति होने का दावा कर रहा हो तब दावा किसका माना जायेगा इसका फैसला करने का अधिकार कलेक्टर को उसके विवेक पर करने दिया जाय सुप्रीम कोर्ट ने कहा बिल्कुल नहीं ये डीएम अपने विवेक पर कैसे कर सकता है। यह भी प्रावधान किया गया था कि कलेक्टर की रिपोर्ट के बाद अगर सम्पत्ति को सरकारी सम्पत्ति मान लिया गया तो वह सम्पत्ति हमेशा के लिए राजस्व रिकार्ड में सरकारी सम्पत्ति के दर्ज हो जायेगी इस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने असहमति जताई है । जगह - जगह हो रहे सर्वे अब नहीं होंगे। वक्फ बोर्ड अब यह बताने के लिए बाध्य नहीं होगा कि सर्वे की जाने वाली सम्पत्ति वक्फ की है या नहीं। सेंट्रल वक्फ काउंसिल के सदस्यों का मुस्लिम होना अनिवार्य है इसको लेकर भी विवाद था। तो कहा गया कि काउंसिल में दो गैर मुस्लिम व्यक्तियों को बतौर सदस्य शामिल किया जा सकता है तथा मुस्लिम सदस्यों में से दो मुस्लिम महिलाओं का होना अनिवार्य है।

केन्द्र सरकार द्वारा वक्फ़ कानून में शामिल किये गये प्रावधानों की आंख मूंदकर वकालत कर रहे ज्वाइंट पार्लियामेंट कमेटी के अध्यक्ष रहे जगदंबिका पाल से सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये अंतरिम आदेश पर प्रतिक्रिया चाही गई तो उन्होंने कहा कि जो कानून पारित हुआ है वह वैध है। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ प्रावधानों पर रोक लगाई है उस पर निश्चित तौर पर सरकार विचार करेगी तथा सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कार्रवाई करेगी। सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश से सत्ता किस तरह से घुटने के बल आ गई है कि उसे डेमोक्रेसी की दुहाई देते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सर्वोपरि कहना पड़ रहा है। जरा फ्लैश बैक में झांके तो बीजेपी पार्लियामेंट के भीतर और ज्वाइंट पार्लियामेंट कमेटी के अंदर जिन सवालों को उठा रही थी उन सारे सवालों पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम फैसले द्वारा रोक लगा दी है। देश को यह भी समझ में आ गया है कि मोदी सरकार का नजरिया पालिटिकल टार्गेट का था। वह राजनीतिक तौर पर लाभ लेना चाहती थी जिस लाभ के पीछे हिन्दू एकजुटता का सवाल जो बीजेपी और मोदी सत्ता बार - बार खड़ा करती है शायद उसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर सेंध लगा डाली है कि आप हर जगह हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं।

यह हकीकत है कि केंचुआ के मुख्य आयुक्त चाहे राजीव कुमार रहे हों या फिर ज्ञानेश गुप्ता हों इनकी इतनी हैसियत नहीं है कि वे देश के संविधान और सुप्रीम कोर्ट के सामने चुनौती पेश कर सकें जब तक उनके सिर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का हाथ ना हो ! केंचुआ जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट की नसीहत के बाद भी बेधड़क बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर वोटर लिस्ट पुनरीक्षण कार्यक्रम एसआईआर चला रहा है उसके पीछे प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के वरदहस्त को नकारा नहीं जा सकता है। और यह तब और प्रगाढ़ हो गया जब केंचुआ ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर देश की सबसे बड़ी अदालत को ही चुनौती दे डाली कि हमें आर्डर देने वाले आप कौन होते हो। केंचुआ का हलफनामा संविधान की आड़ लेकर उस सुप्रीम कोर्ट को चुनौती दे रहा है जिस सुप्रीम कोर्ट के दायरे में ही संविधान की व्याख्या करना आता है। ऐसा नहीं है कि विधायिका और न्यायपालिका में टकराव की परिस्थिति कोई पहली बार बन रही है लेकिन 2014 के बाद से जबसे बीजेपी और नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली की सल्तनत सम्हाली है तबसे निरंतर न्यायपालिका को कमजोर करने का काम सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है। अब तो आने वाले 10 सालों तक के लिए सुप्रीम कोर्ट के भीतर ऐसी व्यवस्था कर दी गई है जहां से बीजेपी के अनुकूल फैसले आने की संभावना बलवती बनी रहेगी। क्योंकि हाईकोर्ट के अलावा अब तो सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों की प्रगाढ़ता की खबरें और तस्वीरें गाहे-बगाहे मीडिया में वायरल होती रहती हैं। इसके बावजूद भी देशवासियों के लिए न्याय की अंतिम चौखट सुप्रीम कोर्ट ही बना हुआ है।
हां तो बिहार में हो रहे एसआईआर को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के बीच केंचुआ ने सुप्रीम अदालत में एक हलफनामा पेश करते हुए कहा है कि अदालत इस मामले में हस्तक्षेप न करे। जिसके मजमून को अखबारों ने अपनी हेडलाइन बनाते हुए छापा - - - सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग को नहीं दे सकता एसआईआर कराने का निर्देश, चुनाव आयोग ने दाखिल किया जवाबी हलफनामा - - निर्वाचन आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) मामले में जवाबी हलफनामा दाखिल किया है। अदालत से इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करने को कहा है। यानी वोटर लिस्ट में हमें क्या करना है, कब करना है, ये हम ही तय करेंगे। कोई दूसरा नहीं तय कर सकता है। कहा जा सकता है कि देश की एक संवैधानिक संस्था लोकतंत्र के एक पाये सुप्रीम कोर्ट की सुप्रीमेशी को सीधे-सीधे चेलेंज कर रही है। अंग्रेजी अखबार The Hindu ने भी हेडलाइन बनाई है - - Election Commission, and no other authority decides when to conduct SIR : ECI tells SC - - A direction to conduct SIR at regular intervals throughout the country would encroach the exclusive jurisdiction of the Election Commission.
इलेक्शन कमीशन ने अपने हलफनामा में लिखा कि वोटर लिस्ट अपडेट करने की सीमा तय नहीं है। हर चुनाव से पहले वोटर लिस्ट का वेरिफिकेशन करना हमारी जिम्मेदारी है। बदलाव छोटा हो या बड़ा ये हमारा फैसला है। वोटर लिस्ट सही और भरोसेमंद रखना हमारी जिम्मेदारी है। कब समरी रिवीजन हो, कब इन्सेंटिव रिवीजन हो ये हम ही तय करेंगे। यानी सब कुछ हम ही तय करेंगे। उसने संविधान की धारा 121 का जिक्र करते हुए लिखा कि वोटर लिस्ट में बदलाव करने की कोई तय समय सीमा नहीं है बल्कि ये सामान्य जिम्मेदारी है जिसे हर आम चुनाव, विधानसभा चुनाव या किसी सीट के खाली होने पर होने वाला चुनाव हो उससे पहले होना जरूरी है। चुनाव आयोग ने अपने हलफनामे में नियम 25 का भी जिक्र करते हुए लिखा कि मतदाता सूची में छोटे या बड़े स्तर पर बदलाव करना है या नहीं पूरी तरह से हमारे फैसले पर निर्भर करता है। इतना ही नहीं जनप्रतिनिधि अधिनियम 1950 का जिक्र करते हुए लिखा कि चूंकि मतदाता सूची को सही और भरोसेमंद रखना हमारी कानूनी जिम्मेदारी है इसलिए राज्य में एसआईआर कराने का निर्णय हम लेंगे। इसके बाद लिखा कि मतदाता पंजीकरण नियम 1960 के अनुसार चुनाव आयोग को छूट है कि वो तय करे कि कब समरी रिवीजन तथा कब इन्सेंटिव रिवीजन किया जाय इतना ही नहीं उसने तो यह भी लिख दिया अपने हलफनामे में कि इसमें हस्तक्षेप करने अधिकार किसी दूसरी संस्था के साथ ही अदालत को भी नहीं है।

अश्वनी कुमार उपाध्याय द्वारा "चुनाव आयोग को भारत में विशेष रूप से चुनाव के पहले एसआईआर कराने का निर्देश दिया जाय ताकि देश की राजनीति और नीति केवल भारतीय नागरिक ही तय करें" वाली याचिका पर सुनवाई करने के दौरान चुनाव आयोग द्वारा दाखिल किए गए हलफनामे पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने (मुद्दे, मुद्दों के बाद जनता की भावना, जनता की भावना से होने वाले चुनाव, चुनाव में वोटर लिस्ट को लेकर चुनाव आयोग द्वारा उठाए जा रहे सवाल) खुले तौर पर यह कह दिया "हम यह मानकर चलेंगे कि चुनाव आयोग अपनी जिम्मेदारी को जानता है अगर कोई गड़बड़ी हो रही है तो हम इसको देखेंगे और अगर बिहार में एसआईआर के दौरान चुनाव आयोग द्वारा अपनाई गई कार्यप्रणाली में कोई अवैधता पाई जाती है तो पूरी प्रक्रिया को रद्द किया जा सकता है। जब याचिकाकर्ता ने कहा कि चुनाव आयोग प्रक्रिया का पालन नहीं कर रहा है, उसकी अनदेखी कर रहा है तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इलेक्शन कमीशन बिहार में हो रहे एसआईआर और देश के दूसरे राज्यों में होने वाले वोटर लिस्ट रिवीजन को अलग - अलग नजरिये से ना देखे। इसलिए बिहार में हो रहे एसआईआर पर टुकड़ों - टुकड़ों में राय मत दीजिए। अंतिम फैसला बिहार भर में ही नहीं पूरे देश में होने वाले एसआईआर पर लागू होगा। यानी बिहार में जिन 65 लाख लोगों को आपने मतदाता सूची से बाहर निकाल दिया है और आप पर गड़बड़ी करने का आरोप लगा और हमने आधार कार्ड को भी बतौर पहचान के रूप में शामिल करने का निर्देश दिया तो आपको क्या दिक्कत थी यदि आधार कार्ड को लेकर किसी तरह की शंका थी तो उसकी जांच करा सकते हैं क्योंकि देश में कोई नहीं चाहता है कि चुनाव आयोग अवैध प्रवासियों को मतदाता सूची में शामिल करे। यानी जिस बात का जिक्र प्रधानमंत्री अपनी हर रैली में करते रहते हैं कि विपक्षी पार्टियों अवैध प्रवासियों के आसरे चुनाव जीतने की कोशिश करती हैं। बीजेपी भी लगातार अवैध प्रवासियों की घुसपैठ का सवाल खड़ा करती रहती है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि कोई भी अवैध प्रवासियों को वोटर लिस्ट में शामिल कराना नहीं चाहता है। केवल वास्तविक नागरिक को ही वोट देने की अनुमति होनी चाहिए। जो लोग फर्जी दस्तावेज के आधार पर शामिल हो रहे हैं उन्हें मतदाता सूची से बाहर रखा जाना चाहिए लेकिन आप इस रूप में कोई काम नहीं कर सकते हैं कि फलां अवैध प्रवासी है तो है क्योंकि हमने कह दिया सो कह दिया। आप किसी भी दस्तावेज को इस तरह से खारिज नहीं कर सकते हैं कि हमने खारिज कर दिया सो कर दिया। शायद इसीलिए सुप्रीम कोर्ट को इस तरह की टिप्पणी करनी पड़ गयी कि बिहार में आप जिस तरह की कार्यप्रणाली अपना रहे हैं और अगर हमको लगता है कि उसमें जरा सी भी गड़बड़ी या अवैधता हुई है तो हम एक झटके में सब कुछ रद्द कर देंगे।

कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने बहुत ही साफ और शार्प तरीके से सरकार को ये मैसेज देने की कोशिश की है कि आप अपने तौर पर गवर्नेंस के तौर तरीकों के तौर पर किसी धार्मिक - सामाजिक संगठन में हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं कि वो कैसे और किस रूप में चले तथा एक झटके में गवर्नेंस बाड़ी को सारे पावर भी नहीं दे सकते हैं। इलेक्शन कमीशन को चेताते हुए कहा कि गड़बड़ी मत कीजिए। ऐसा नहीं है कि संविधान ने अगर आपको कुछ अधिकारों से नवाजा है तो आप संवैधानिक संस्था के तौर पर संविधान का जिक्र करते हुए जो मन ने चाहा वही करेंगे। जनता की आवाज याचिकाकर्ता के तौर पर अगर हमारी चौखट पर पहुंचेगी तो हम उसको सुनेंगे भी और फैसला भी देंगे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले और उसकी टिप्पणियों का मैसेज तो यही समझा जा सकता है कि उसने चुनाव आयोग को सीधी चेतावनी दी है कि आप आखिरी संस्था नहीं है, संविधान से बड़ा कोई नहीं है और संविधान की व्याख्या करना सुप्रीम कोर्ट का अधिकार है उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार किसी को नहीं है। भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है। देश संविधान के तहत चलता है जो पूरे तरीके से धर्म निरपेक्षता में आस्था रखता है। धर्म निरपेक्षता के आधार पर हर धर्म की अपनी एक प्रक्रिया है उसमें हस्तक्षेप करना ठीक नहीं है। देश की संवैधानिक संस्थायें चैक एंड बैलेंस करना जानती हैं और सुप्रीम कोर्ट को चैक एंड बैलेंस करने में महारत हासिल है। और उसने एथेनाॅल, वनतारा जू, वक्फ कानून और चुनाव आयोग के एसआईआर के मामलों में चैक एंड बैलेंस का नजारा नट की तरह हवा में रस्सी पर चलते हुए पेश कर दिया है। सारी परिस्थितियों के बीच से यह संदेश भी उभर कर सामने आ रहा है कि मौजूदा समय में सब कुछ ठीक नहीं है और सब कुछ ठीक करने के लिए जो भी प्रयास मौजूदा राजनीतिक सत्ता कर रही है उसके लिए भी हालात बहुत अच्छे नहीं है। 
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार