
28 वर्ष की उम्र में फांसी के फंदे को चूमने वाले प्रथम बिहारी अमर शहीद बैकुंठ शुक्ला उनकी पत्नी महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीरांगना राधिका देवी तथा चाचा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का विराट व्यक्तित्व नरम दल गरम दल दोनों को स्वीकार एवं क्रांतिकारियों के प्रेरणा स्रोत हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी के संस्थापक योगेंद्र शुक्ला की गौरव गाथा
नाम - बैकुंठ शुक्ल
पिता- राम बिहारी शुक्ला
जन्म - 15 मई 19 07
जन्म स्थान- ग्राम जलालपुर जिला
मुजफ्फरपुर वर्तमान में
वैशाली जिला
मृत्यु - 14 मई 1934 को फांसी
मृत्यु स्थान - केंद्रीय कारागार गया
*जीवन काल- 28 वर्ष लगभग
_______________________________
वर्तमान वैशाली जिला जो पहले मुजफ्फरपुर के अंतर्गत आता था के ग्राम जलालपुर में अयाचक ब्राह्मण कुल में किसान राम बिहारी शुक्ला के पुत्र के रूप में 15 मई 1907 को एक बालक ने जन्म लिया। दादा मनु शुक्ला ने बालक का नाम वैकुंठ शुक्ला रखा। बचपन से ही बैकुंठ शुक्ला प्रतिभाशाली एवं होनहार थे। जिस कार्य को करते उसको पूरा करके ही छोड़ते थे।
बैकुंठ शुक्ला की प्रारंभिक शिक्षा मथुरापुर प्राथमिक विद्यालय में हुआ जो उनके गांव के पास में ही था। मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद बैकुंठ शुक्ला ने शिक्षक प्रशिक्षण का भरनाकूलर कोर्स किया।
शारीरिक दक्षता में वह एक मजबूत और गठीले बदन के स्वामी थे। अत्यंत फुर्तीला चमकता ललाट से उनका तेज झलकता था ।ललाट पर चंदन और मोटी शिखा उस तेज को चौगुना करता था। पास की गंडक नदी में घंटो -घंटो तैरते रहते वह एक कुशल तैराक थे।
बैकुंठ शुक्ला के जीवन पर चाचा योगेंद्र शुक्ला का गहरा प्रभाव पड़ा। स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला जो योगेंद्र शुक्ला के सीने में धधक रही थी ज्योति से ज्योति जलाने के क्रम में वही आग बैकुंठ शुक्ल के सीने में भी जलने लगी।बैकुंठ शुक्ला ने अपना कदम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मे अंग्रेजों के दासता से मुक्ति के लिए बढ़ाना शुरू किया। योगेंद्र शुक्ला भतीजे बैकुंठ शुक्ला को साथ नहीं रखना चाहते थे। क्रांतिकारी बनने के मजबूत इरादे और दृढ़ निश्चय पर आगे बढ़ते हुए बैकुंठ शुक्ला के इरादे को उनके पिता ने भाप लिया।
इनके पिता राम बिहारी शुक्ला ने मथुरापुर के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक की नौकरी लगवा दिया। मथुरापुर में ही राज नारायण शुक्ला के घर पर इनके रहने खाने की व्यवस्था करा दिए। इसके साथ ही वह उनके घर के बच्चों को भी पढ़ाते थे। इस प्रकार इनका यह क्रम चलने लगा। तब इनके पिताजी ने इनकी शादी करने का मन बनाया।
11 मई 1927 को बैकुंठ शुक्ला(20 वर्ष) की शादी राधिका देवी (17 वर्ष )से संपन्न हुई। राधिका देवी का त्याग बलिदान आंतरिक वेदना की कहानी कम नहीं है ।भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारत को स्वतंत्र कराने के लिए अपने पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चली।
वीरांगना राधिका देवी का जन्म सारण जिले के ग्राम महमदपुर थाना परसा पिता चक्रधारी सिंह के पुत्री के रूप 1910 को पौष मास की अमावस्या तिथि को हुआ। राधिका देवी कक्षा 7 तक पढी थी। पढ़ी लिखी होने के साथ भारत की गुलामी से मुक्त कराने का सपना सजाई थी ।क्रांतिकारी परिवार में शादी होने से पहले स्वतंत्रता का बीज सीने में था। यहां आते ही उचित वातावरण और पोषण से अंकुरित हो गया ।
इस समय तक देश में आजादी की अलख जग गई थी। हाजीपुर में जगदानंद झा ने एक गांधी आश्रम की स्थापना की 7 दिसंबर 1920 को गांधीजी चंपारण जाने के क्रम में यहां आए थे ।तब स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था। वैशाली जिले का गांधी आश्रम उत्तर बिहार के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का प्रमुख केंद्र था। बाबू किशोरी प्रसन्न सिंह जय नंदन झा अक्षयवट राय प्रमुख थे। यह नरम दल और गरम दल दोनों का केंद्र था। 1925 तक यह आश्रम अपना विराट रूप पकड़ लिया। भगत सिंह चंद्रशेखर आजाद सहित देश के बड़े-बड़े क्रांतिकारियों का योगेंद्र शुक्ला के यहां आना-जाना होने लगा।
9 सितंबर 1928 को योगेंद्र शुक्ला और भगत सिंह ने मिलकर बिहार बंगाल और पंजाब के क्रांतिकारियों ने मिलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी का गठन किया। जिसका उद्देश्य भारत को शीघ्र स्वतंत्र कराना था । योगेंद्र शुक्ला और भगत सिंह इसके प्रमुख थे। विनोद सिंह मलखा चौक और फणींद्र घोष बिहार उड़ीसा प्रांत के प्रभारी बनाए गए।
1929 में मुजफ्फरपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष बाबू राम दयालु सिंह बने उन्होंने 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन की हाजीपुर क्षेत्र का संपूर्ण जिम्मेदारी किशोरी प्रसन्न सिंह अक्षयवट राय और बाबू दीप नारायण सिंह सिंह को सौंपी। जिस के क्रम में यह लोग गांव-गांव घूमकर कार्यकर्ताओं की भर्ती करने लगे
क्रांतिकारी योगेंद्र शुक्ला और बसावन सिंह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकआर्मी (एचएसआरए )से जुड़ने के बाद उनका कार्यक्षेत्र बढ़ गया बनारस दिल्ली लाहौर मैं अधिक समय रहने के कारण क्षेत्रीय आंदोलन की जिम्मेदारी किशोरी प्रसन्न सिंह और उनकी पत्नी सुनीति देवी पर पड़ा। यह निरंतर भ्रमण कर युवाओं में चेतना का प्रवाह करने लगे।
एक दिन किशोरी प्रसन्न सिंह मथुरापुर के राज नारायण शुक्ला के घर गए जहां बैकुंठ शुक्ला रहते थे। वहीं पर किशोरी प्रसन्न सिंह की मुलाकात बैकुंठ शुक्ला से हुई। बैकुंठ शुक्ला की लंबी शिखा और त्रिपुंड चंदन हर किसी को आकर्षित कर लेता था। बैकुंठ शुक्ला तो पहले से ही स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी करने के लिए तैयार बैठे थे। बैकुंठ शुक्ला के सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि उनकी शादी हाल ही में हुई थी। इसको लेकर वह काफी परेशान थे। बैकुंठ शुक्ला ने किशोरी प्रसन्न सिंह से प्रस्ताव रखा।किसी तरह पत्नी को भी तैयार करवाइए। पत्नी तैयार हो जाए तो दोनों मिलकर राष्ट्र की सेवा करेंगे सार्वजनिक जीवन का ही परित्याग कर देंगे।
किशोरी प्रसन्न सिंह ने इस काम के लिए अपनी पत्नी सुनीता देवी को लगाया। सुनीता देवी और बैकुंठ शुक्ला की पत्नी राधिका देवी के दो मुलाकात में ही तैयार हो गई अपना सर्वस्व न्योछावर कर संपूर्ण जीवन देश की सेवा में लगाने का संकल्प ले लिया। सुनीति देवी और राधिका देवी गांव से भागकर हाजीपुर आश्रम पर पहुंची जो पहले से तय था। वही बैकुंठ शुक्ला और राधिका देवी रहने लगे।
भारत को अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाने हेतु संकल्पित होकर बैकुंठ शुक्ला नौकरी से त्यागपत्र दे दिए। शिक्षक की नौकरी छोड़कर हाजीपुर आश्रम पर पत्नी के साथ देश सेवा में लग गए। आश्रम पर सुनीति देवी के अलावा शारदा देवी कृष्णा देवी सहित कई महिलाएं रहती थी ।राधिका देवी के आने से यहां की व्यवस्था और सुदृढ़ हो गई। क्योंकि यह बहुत जिम्मेदार और समय की पाबंद थी इसके साथ ही अत्यंत दयालु और मिलनसार थी ।यहां चरखे पर सूत काटना अन्य लोगों को सूत काटने के लिए प्रेरित करना रुई देना धागा लेना था। इसके साथ ही प्रचार करना लोगों को जोड़ने का काम भी इनको मिल गया जो अपने पति के साथ बखूबी करती थी।
सर्वप्रथम बैकुंठ शुक्ला को चरखा समिति के प्रचार का जिम्मा दिया गया। बैकुंठ शुक्ला और पत्नी राधिका देवी हाजीपुर मुजफ्फरपुर सारण मलखाचक महनार दलसिंहसराय के चरखा केंद्रों की जिम्मेदारी दी गई। अन्यत्र जाने के लिए राधिका देवी ने भी साइकिल चलाना सीख लिया।जल्द ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और क्रांतिकारियों से निरंतर बढ़ते संपर्क के क्रम में बैकुंठ शुक्ला और राधिका देवी की पहचान बन गई। सुनीति देवी और राधिका देवी व प्रभावती देवी अब दूर-दूर के कार्यक्रमों में भी जाने लगी।
हाजीपुर आश्रम पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और क्रांतिकारियों का जमावड़ा रहता था ।योगेंद्र शुक्ला? बटुकेश्वर दत्त चंद्रशेखर आजाद भगत सिंह का आना जाना लगा रहता था।
1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होने से पूर्व बिहार के प्रथम सत्याग्रही श्री कृष्ण सिंह गांधी आश्रम हाजीपुर आए। श्री कृष्ण के यहां की महिलाओं का कार्य देखकर बहुत प्रभावित हुए और सुनीति देवी और राधिका देवी की कार्यों की बहुत प्रशंसा किए।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के शुरुआत में आश्रम पर नमक कानून तोड़ने पर इतनी ज्यादा भीड़ हुई कि अंग्रेज सिपाही चाह कर भी विरोध नहीं कर पाए बाद में घुड़सवार पुलिस ने आकर आंदोलनकारियों को पकड़ कर ले जाने लगी। आंदोलनकारियों के गिरफ्तारी के समय यहां उपस्थित महिला जत्था ने जोरदार विरोध किया।
अंग्रेज सिपाही महिलाओं पर टूट पड़े उनके डंडे के प्रहार से राधिका देवी का बाया हाथ टूट गया। और उनको चोटे आई ।बैकुंठ शुक्ला सहित 72 स्वयंसेवकों को पुलिस ने पकड़ कर बांकीपुर कैंप जेल भेज दिया। इसके 6 महीना बाद गांधी जी और इरविन के बीच हुए समझौते के कारण सभी आंदोलनकारियों को छोड़ दिया गया।
बैकुंठ शुक्ला की मुख्य भूमिका
जून 1930 को योगेंद्र शुक्ला बसावन सिंह काकोरी षड्यंत्र केस और सिर्फ षड्यंत्र केस में गिरफ्तार कर लिए जाने के पश्चात हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी की कमान को बैकुंठ शुक्ला ने अपने नेतृत्व में ले लेकर कमान संभावना प्रारंभ किया।
1931 आते आते अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को दबाने का निश्चय किया और क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलना शुरू कर दिया।
27 फरवरी 1931 को जब चंद्रशेखर आजाद एक विशेष व्यक्ति से मिलकर भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु की फांसी रुकवाने के लिए सम्मिलित (नरम दल गरम दल) आंदोलन चलाने को कहा। तथा कांग्रेस द्वारा फांसी रुकवाने की पहल करने को कहा पर सहमति नहीं बनी और बातचीत के दौरान तल्ख़ियां बढ़ गई। वहीं से हुई मुखबिरी के कारण इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में चंद्रशेखर आजाद को अंग्रेजों ने घेर लिया दोनों तरफ से गोलियां चलने लगी। क्रॉस फायरिंग में जब चंद्रशेखर आजाद के पास आखरी गोली बची तो उन्होंने स्वयं को मार कर आजाद नाम को जीवित रखा। वे देश का तथा कथित नरम दल द्वारा भगत सिंह की फांसी रोके जाने पर पहल न करने पर काफी क्षुब्ध थे।
23 मार्च 1931 को भगत सिंह राजगुरु सुखदेव को फांसी की सजा तख्ते पर लटका दिया गया। इस तिहरे फांसी ने क्रांतिकारियों को झकझोर कर रख दिया।
1931 में गांधीजी के आवाहन पर मुजफ्फरपुर के ऐतिहासिक तिलक मैदान में बैकुंठ शुक्ला और उनकी पत्नी राधिका देवी ने तिरंगा ध्वज फहराया बैकुंठ शुक्ला गिरफ्तार कर लिए गए। लेकिन उनकी पत्नी राधिका देवी भागकर हाजीपुर आश्रम पर पहुंच गई। 1933 में उनकी पत्नी राधिका देवी भी गिरफ्तार कर ली गई। जेल में बैकुंठ शुक्ला और पत्नी राधिका देवी के ऊपर बहुत जुल्म ढाए गए।
लाहौर षड्यंत्र केस में भगत सिंह राजगुरु सुखदेव को 23 मार्च 1931 फांसी होने के बाद देश में कोहराम मच गया। इन क्रांतिकारियों को फांसी की सजा पूर्व में क्रांतिकारी रहे गद्दार फणींद्र घोष की गवाही पर हुआ। देश के क्रांतिकारियों ने फणींद्र घोष को सजा-ए-मौत का फरमान जारी किया।
फणींद्र घोष अंग्रेजों से इनाम पाकर बेतिया में पुलिस संरक्षण में रह रहा था। अक्टूबर 1932 में पंजाब की क्रांतिकारियों ने बिहार के क्रांतिकारियों को एक मार्मिक पत्र लिखा जिसका मूल था *कलंक धोवोगे कि ढोवोगे यह बात बिहार के क्रांतिकारियों को चुभ गई उन्होंने संकल्प लिया कि गद्दार फणींद्र घोष मौत की सजा दे कर मानेंगे।
पंजाब के क्रांतिकारियों के संदेश का बिहार के क्रांतिकारियों पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा। जिसमें क्रांतिकारियों की एक बैठक हुई गद्दार फणींद्र घोष को सजा-ए-मौत देने के लिए क्रांतिकारियों में होड़ मच गई सुनीति देवी कहती थी कि हम जाएंगे अक्षयवट राय उनको समझाएं तब भी सुनीतिदेवी नहीं मानी तब लाटरी की प्रक्रिया अपनाई गई लॉटरी मैं बैकुंठ शुक्ला का नाम निकला बैकुंठ शुक्ला का नाम निकला तो वह उछल पड़े बैकुंठ शुक्ला ने कहा ना हम गद्दारी करते हैं और ना गद्दारों को माफ करते हैं। इस काम में उनके साथी बने चंद्रमा सिंह बैकुंठ शुक्ला ने सबके सामने फणींद्र नाथ घोष को अंजाम तक पहुंचाने का संकल्प लिया।
बेतिया जाने के लिए मुजफ्फरपुर मोतिहारी के रास्ते बैकुंठ शुक्ला और चंद्रमा सिंह एक साइकिल से चले क्योंकि पकड़े जाने का डर था। दरभंगा में रात्रि विश्राम गोपाल नारायण शुक्ल के यहां हुआ। जो वहां पढ़ाई कर रहे थे ।बैकुंठ शुक्ला के गांव के थे। जाते समय गोपाल नारायण शुक्ल से बैकुंठ शुक्ला ने एक धोती मांग लिए साइकिल से ही तीसरे दिन बेतिया पहुंचे।
9 नवंबर 1932 को बेतिया मीना बाजार में 7 बजे सायं साथी चंद्रमा सिंह को रुकने का इशारा करके फणींद्र नाथ घोष की दुकान पर पहुंच गए। वहां पहुंचते ही धोती में रखे कटार को निकालकर गद्दार फणींद्र नाथ घोष के सीने पर जोरदार प्रहार करते हुए भारत माता की जय का नारा लगाए दुकान से निकलते समय गणेश प्रसाद गुप्ता ने बैकुंठ शुक्ला को पकड़ लिया। बैकुंठ शुक्ला ने गणेश प्रसाद गुप्ता के सीने में वही कटार उतार दिया और वह वहीं पर गिरकर तड़फडाने लगा एक और व्यक्ति ने बैकुंठ शुक्ला को पकड़ने का प्रयास किया तो उसे भी कटार का शिकार बना दिए। बेतिया मीना बाजार में भगदड़ मच गया चारों तरफ कोहराम हो गया। बैकुंठ शुक्ला भारत माता की जय के नारे लगाते हुए चंद्रमा सिंह के साथ भागने में सफल हुए। गंडक नदी पार कर छपरा पहुंच गए।
अंग्रेजों द्वारा फणींद्र नाथ घोष के सुरक्षा में लगाए गए सिपाही सहदेव सिंह के बयान पर वहां के थाने में केस नंबर 8/ 1932 दर्ज हुआ फणींद्र नाथ घोष की दिनदहाड़े पुलिस सुरक्षा में हुई हत्या से अंग्रेज काफी भयभीत हुए। उन्होंने पकड़ने वाले को इनाम देने की घोषणा कर दी। फणींद्र नाथ घोष को गंभीर रूप से घायल होने के कारण अस्पताल में भर्ती किया गया लेकिन वह इतना भयभीत था कि बैकुंठ शुक्ला का नाम लेने से डरता रहा 17 नवंबर को अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई लेकिन उसने बैकुंठ शुक्ला का नाम नहीं लिया। 20 नवंबर को गणेश गुप्ता भी दम तोड़ दिया।
बैकुंठ शुक्ला साइकिल से आते समय अपने गांव के पढ़ाई कर रहे छात्र के यहां दरभंगा में ठहरे थे और उससे एक धोती लिए थे। घटना के समय वह धोती वही छूट गई जिसके सहारे पुलिस ने दरभंगा के गोपाल नारायण शुक्ला को गिरफ्तार कर लिया पुलिस के भय से उन्होंने बैकुंठ शुक्ला का नाम बता दिया।
15 जनवरी 1933 को चंद्रमा सिंह को कानपुर से गिरफ्तार किया गया। इनाम राशि बढ़ाने के बाद भी पुलिस बैकुंठ शुक्ला को गिरफ्तार करने में विफल रही अंग्रेज के आला अधिकारी स्थानीय पुलिस पर दबाव बनाने लगी पूरे राज्य में बैकुंठ शुक्ला के गिरफ्तारी के लिए अभियान चलाया गया।
6 जुलाई 1933को बैकुंठ शुक्ला हाजीपुर गंडक पुल जबरदस्त नाकेबंदी करके पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया बैकुंठ शुक्ला और चंद्रमा सिंह को मोतिहारी जेल में रखा गया।
मुजफ्फरपुर जिला न्यायालय में टी ल्यूबि सत्र न्यायाधीश के समक्ष सम्राट बनाम बैकुंठ शुक्ला आदि के नाम से मुकदमा चला फणींद्र घोष और उसके साथी के हत्या के आरोप में बैकुंठ शुक्ला और चंद्रमा को मोतिहारी जेल में रखा गया। लेकिन मुकदमा मुजफ्फरपुर सेशन कोर्ट में चला मुकदमे के दौरान सरकार की तरफ से 91 अभियोजन साक्ष्य बैकुंठ शुक्ला के विरोध में पेश किया गया और न्यायालय में बैकुंठ शुक्ला को भयानक दुर्दांत अपराधी के रूप में पेश किया गया। इस मुकदमे में गोपाल नारायण शुक्ला ने बैकुंठ शुक्ला के विरुद्ध गवाही दिया। इसके पुरस्कार में गोपाल नारायण शुक्ला को पुलिस में दरोगा बना दिया गया।
मुकदमा ट्रायल के दौरान बैकुंठ शुक्ला ने अपना कोई वकील नहीं रखा। जिस वजह से अभियुक्त के बचाव के लिए जिला मजिस्ट्रेट ने जेएस बनर्जी को उनका वकील नियुक्त किया। अभियुक्त ने 50 सफाई साक्ष्य की सूची दी लेकिन एक भी गवाह को पेश करने की अनुमति नहीं दी गई।
22 फरवरी 1934 को सेशन कोर्ट ने 3 सदस्यों ने बैकुंठ शुक्ला चंद्रमा सिंह को फणींद्र नाथ घोष और उनके साथी की हत्या में दोषी नहीं माना सिर्फ एक ने दोषी माना। लेकिन सेशन जज ने बैकुंठ शुक्ला को फणींद्र नाथ घोष और उनके साथी की हत्या के जुर्म में फांसी की सजा सुनाई और 24 फरवरी 1934 को पटना उच्च न्यायालय को सजा कंफर्मेशन के लिए पत्र लिखा। लेकिन बैकुंठ शुक्ला द्वारा इसके खिलाफ कोई अपील दाखिल नहीं किया गया वह इसके लिए अपने पत्नी को मना भी किए थे। उनका कहना था भारत को स्वतंत्र कराने के लिए पुनर्जन्म लूंगा ।
पटना कोर्ट में 17 अप्रैल 1934 को सेशन कोर्ट के फैसले की पुष्टि किया गया। घटना की पूरी जिम्मेदारी बैकुंठ शुक्ला ने अपने ऊपर ले रखी थी। इसलिए चंद्रमा सिंह को रिहा किया गया।
बैकुंठ शुक्ला को केंद्रीय कारागार गया में ले आया गया और उन्हें विशेष सुरक्षा के तहत काल कोठरी में रखा गया।
बैकुंठ शुक्ला को फांसी होने के एक दिन पहले 13 मई 1934 को हाजीपुर गांधी आश्रम से बैकुंठ शुक्ला की पत्नी राधिका देवी गया सेंट्रल जेल अपने पति से मिलने हेतु पहुंची लेकिन उनको मिलने नहीं दिया गया। क्रूर अंग्रेजों ने अंतिम इच्छा भी पूर्ण नहीं होने दिया। मृत्यु से पहले पति-पत्नी तब को मिलने से रोका गया कितना करुण और हृदय विदारक घटना रही होगी।
13 मई 1934 को फांसी से 1 दिन पहले बैकुंठ शुक्ला जेल में स्वतंत्रता के जागरण गीतों को गाते रहे। फांसी से पहले खुदीराम बोस द्वारा गाए गए गीतों को गाते रहे ।अंत में वंदे मातरम सुनाएं पड़ोस के बैंरकों में बंद कैदियों ने भी उनका साथ दिया। जेल का वातावरण वंदे मातरम के नारों से गूंज उठा। बैकुंठ शुक्ला को देखने और सुनने पर लगता ही नहीं था कि उनकी फांसी होने वाली है। अदम्य साहस और शौर्य के प्रतीक बैकुंठ शुक्ला के चेहरे पर जो तेज झलक रहा था। उसमें कोई भय पश्चाताप नहीं दिखा यह अंग्रेजों को बहुत दुखित करने वाला क्षण था कि जिसको फांसी होने वाला है। वह जरा सा भी विचलित नहीं है। उस दिन किसी कैदी ने खाना नहीं खाया। समस्त कैदियों ने उपवास रखकर उनके शहादत को नमन किया।
14 मई 1934 को बैकुंठ शुक्ला ने फांसी से पहले भारत माता का उद्घोष करते हुए फांसी के फंदे को चूम लिया। उनके अंतिम शब्द थे अब जा रहा हूं लौट के आऊंगा भारत आजाद तो नहीं हुआ वंदे मातरम फांसी से पूर्व उनके चेहरे की तेज निर्भयता देखकर वहां का सारा वातावरण अचंभित था।
फांसी के बाद बैकुंठ शुक्ला के शव को उनके परिवार रिश्तेदार को नहीं सौंपा गया बैकुंठ शुक्ला के पार्थिव शरीर को कुछ सिपाहियों ने सरकार के हुक्म पर फल्गु नदी के किनारे अंतिम संस्कार कर दिया है ऐसा बताया गया। तब उनकी वीरांगना पत्नी राधिका देवी ने बिना रोए फल्गु नदी में स्नान कर अपने पति को तर्पण अर्पित कर पुनः हाजीपुर लौट आई।
बैकुंठ शुक्ला के मौत के बाद उनके मायके वाले उन्हें अपने गांव ले गए। लेकिन कुछ माह के बाद ही वह पुनः वापस आश्रम लौट आई। आश्रम में 1936 में सुनीति देवी की मृत्यु हो गई जो यक्षमा से पीड़ित थी। सुनीति देवी के मृत्यु के बाद राधिका देवी अकेली हो गई।
1937 में योगेंद्र शुक्ला अंडमान निकोबार मे काला पानी की कठोर सजा काटकर लौटे।तब राधिका देवी को समझा-बुझाकर जलालपुर ले आए। वहां बैकुंठ शुक्ला के चाचा सूरज शुक्ला जो शिक्षक थे उन्होंने प्रयास करके राधिका देवी को खंजहाचक प्राइमरी स्कूल के शिक्षक के रूप में रखवा दिया। राधिका देवी अपने घर से साइकिल द्वारा आती जाती थी।
देश आजाद होने पर बिहार के मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह ने राधिका देवी के नाम पहलेजा घाट से बसई तक बस का रोड परमिट दिलवा दिया जिस परमिट पर चांदपुर के राघव बाबू का नीरजा बस चलता था। वह उन्हें ₹1000 महीने देते थे। 1969 में राधिका देवी शिक्षक पद से सेवानिवृत्त हुई। 1984 में उन्हें स्वतंत्रता संग्राम का पेंशन मिलना शुरू हो गया। राधिका देवी बैकुंठ शुक्ला के छोटे भाई अपने देवर हरिद्वार शुक्ल के चारों लड़के और एक लड़की के साथ रहती थी और उन्होंने उनके साथ अपना फर्ज निभाती रही।
राधिका देवी और उनके पति बैकुंठ शुक्ला व चाचा योगेंद्र शुक्ला ने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया राधिका देवी बैकुंठ शुक्ला के शहीद स्थल निर्माण के लिए संघर्ष करती रही गया केंद्रीय जेल का नाम वैकुंठ शुक्ला के नाम पर किए जाने के लिए अनेक प्रयास किए लेकिन कोई सफलता नहीं मिली उन्होंने इसके लिए कई बार मुजफ्फरपुर की सड़कों पर धरना भी दिया स्मारक बनाने का सपना 2017 में पूरा हुआ जिसे वह देख ना सकी 24 जनवरी 2004 को ही स्वर्ग सिधार गई।
गया केंद्रीय कारागार का नाम बैकुंठ शुक्ला के नाम पर किए जाने की राधिका देवी की मांग आज भी अधूरी है।
बैकुंठ शुक्ला के पैतृक गांव जलालपुर में बैकुंठ शुक्ला की प्रतिमा स्थापित है जहां सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा 14 मई को उनका शहादत दिवस मनाया जाता है।
मुजफ्फरपुर शहर के बैरिया गोलंबर पर शहीद बैकुंठ शुक्ला कि सरकार द्वारा आदम कद प्रतिमा लगाई गई है जहां 14 मई को शहादत दिवस और 15 मई को जन्म जयंती मनाई जाती है।
केंद्र की अटल बिहारी बाजपेई सरकार ने बैकुंठ शुक्ला योगेंद्र शुक्ला पर डाक टिकट जारी किया गया।
हाजीपुर जीरोमाइल रामाशीष चौक गोलंबर पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का नाम शहीद स्तंभ और बैकुंठ शुक्ला का नाम सर्वप्रथम अंकित है
वैशाली की धरती शुरू से ऊर्जावान रही है। विश्व का पहला गणतंत्र वैशाली। 16 महाजनपदों में एक वैशाली। 24 वे तीर्थंकर महावीर की जन्मभूमि कुंड ग्राम वैशाली। बुद्ध का अंतिम उपदेश वाला वैशाली भगवान बुध यहां तीन बार आए और जीवन में एक लंबा समय व्यतीत किए। साहित्य जगत में वैशाली की नगरवधू आम्रपाली की गूंज।
वैशाली ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जो योगदान दिया वह भारत के स्वर्णिम इतिहास सुनहरे पन्ने पर अंकित है।
उसी वैशाली का लाल बैकुंठ शुक्ला जो भारतीय आन बान और शान के प्रतीक थे। 28 की उम्र में भारत माता की जय के उद्घोष के साथ फांसी के फंदे को चूम कर बिहार के प्रथम बलिदानी बने पत्नी वीरांगना राधिका देवी का महान योगदान रहा और चाचा योगेंद्र शुक्ला भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कोहिनूर है।बैकुंठ शुक्ला योगेंद्र शुक्ला और वीरांगना राधिका देवी का स्मरण होते ही बरबस चाफेकर बंधुओं की याद आती है। एक परिवार का संपूर्ण योगदान भारतीय इतिहास में यदा-कदा ही दिखता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगेंद्र शुक्ला एक बहुत बड़ा नाम है 10 बरस की काला पानी की सजा काटने के बाद योगेंद्र शुक्ला कभी विचलित नहीं हुए। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन योगेंद्र शुक्ला ने किया बिहार बंगाल पंजाब के क्रांतिकारियों को एक प्लेटफार्म दिया। बैकुंठ शुक्ल भारती के फंदे से विचलित नहीं हुए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर भारत माता की जय बोलते हुए चढ गये।
तो उनकी पत्नी राधिका देवी भी कभी विचलित नहीं हुई ।भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में यह एक अद्भुत मिसाल है।
योगेंद्र शुक्ला के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में किए गए योगदान शौर्य और पराक्रम को चंद पन्नो पर नहीं लिखा जा सकता वह साहस शौर्य और धैर्य के प्रतीक थे।
साबरमती आश्रम में योगेंद्र शुक्ला जब रहते थे वे गांधीजी के अत्यंत निकटवर्ती थे।प्रतिदिन होने वाली प्रार्थना सभा में आश्रम के सभी लोगों की उपस्थिति अनिवार्य होती थी। चाहे वह कोई हो आश्रम के एक अति महत्वपूर्ण व्यक्ति ने गांधी जी से जाकर कहा योगेंद्र शुक्ला कभी प्रार्थना सभा में नहीं आते।
गांधीजी से कहा प्रार्थना करने पर जो शक्ति प्राप्त होती है।वह शक्ति उससे पहले से प्राप्त है। अयाचक ब्राह्मणों की शक्ति गांधी जी को पहले से पता थी।
1934 भूकंप के बाद गांधी जी जब हाजीपुर आए तब उन्होंने योगेंद्र शुक्ला से मिलने की अपनी इच्छा जाहिर की और उनके घर का पता पूछा। मैं उनके घर जाकर उनसे मिलना चाहते है।
उस समय वह अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन चुके थे और अंडमान निकोबार सेल्यूलर जेल में काला पानी की सजा काट रहे थे।
गांधीजी के अत्यंत करीबी थे योगेंद्र शुक्ला। 1938 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने दोबारा अध्यक्ष के चुनाव पर गांधीजी नहीं चाहते थे कि सुभाष चंद्र बोस दोबारा अध्यक्ष बने।गांधी जी ने अबुल कलाम आजाद चुनाव लड़ने के लिए कहा। लेकिन वह सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ तैयार नहीं हुए ।जब गांधी जी ने नेहरू जी को चुनाव लड़ने के लिए कहा। नेहरू जी भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं हुए क्योंकि उन्हें सुभाष चंद्र बोस की लोकप्रियता का पता था। इसलिए शहीद नहीं होना चाहते थे।लेकिन गांधीजी को एक नाम सुझाया पट्टाभि सीतारमैया (आंध्र प्रदेश )को चुनाव लड़ाने हेतु कहा। 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष के होने वाले चुनाव में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैया को उम्मीदवार बनाया 29 जनवरी 1939 को चुनाव होना था । लेकिन उससे पहले कांग्रेस पार्टी ने एक पत्र जारी किया गया जिसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस को पुनः विचार करने के लिए कहा गया। पत्र का उद्देश्य था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपना पर्चा वापस ले ले और पट्टाभि सीतारमय्या निर्विरोध अध्यक्ष हो जाए। नेता जी ने कहा कि इस तरह किसी एक का पक्ष लेना उचित नहीं है। इसमें पक्षपात झलक रहा है ।जिससे बात नहीं बनी। कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता जब गांधी जी के साथ थे तब योगेंद्र शुक्ला खुलकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस का साथ दिया।
29 जनवरी 1939 को अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पक्ष 1580 मत पड़े जबकि गांधी समर्थित पट्टाबी सीतारमैया को 13 77 वोट मिले। प्रत्यक्ष रूप से नेताजी सुभाष चंद्र बोस और पट्टाभि सीतारमैया चुनाव लड़ रहे थे लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से यह लड़ाई नेताजी सुभाष चंद्र बोस और गांधी जी की थी। पूरे देश में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पक्ष में हवा चल रही थी उनकी लोकप्रियता चरम पर थी जिससे अंग्रेज बहुत भयभीत थे।
गांधी ने इस हार को स्वयं की हार कहा। गांधी जी सहित देश के तमाम बड़े नेता पट्टाभि सीतारमैया के साथ थे।
तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सारथी या प्रबल समर्थक योगेंद्र शुक्ला स्वामी सहजानंद सरस्वती और शीलभद्र याजी के कठिन प्रयासों से नेताजी सुभाष चंद्र बोस चुनाव जीतने में सफल रहे।उसके बाद इन लोगों के विरुद्ध जो षड्यंत्र हुआ वह किसी से छिपा नहीं है।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय योगेंद्र शुक्ला जयप्रकाश नारायण जेल में बंद थे जयप्रकाश नारायण बहुत ही बीमार थे योगेंद्र शुक्ला जेल से भागने की रणनीति बनाएं मजबूत कद काठी और हिम्मत के धनी योगेंद्र शुक्ला ने जेल की कैदियों के धोती के सहारे जेल की 17 फीट की दीवाल पर चढ़ गए और जयप्रकाश नारायण सहित छह साथियों को जेल से भगाने में सफल रहे जयप्रकाश नारायण की बीमारी हालत में चलने की स्थिति नहीं थी योगेंद्र शुक्ला 124 किलोमीटर कंधे पर लादकर जयप्रकाश नारायण को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाएं। हाजीपुर सेंट्रल जेल के अभेद्य सुरक्षा को तार-तार कर दिया।
काकोरी कांड आगरा कैंट के आगे चलती रफ्तार ट्रेन से कूदना अंग्रेजों से घिरा होने पर सोनपुर की उफनती गंगा में छलांग लगाना उनके शौर्य साहस और पराक्रम को दर्शाता है भारत को स्वतंत्र कराने के लिए उनके अंदर जो साहस और जज्बा दिखा वैसा तो कोई लाखों में एक ही होगा। ऐसे अनेक साहस और बहादुरी के उनके कारनामे भरे पड़े हैं।
15 अगस्त 1947 को देश को आजादी मिली परंतु स्वतंत्रता के बाद इस महानायक को वह स्थान नहीं मिला जिसके वह हकदार थे।