बैठकी जमते हीं उमाकाका बोल पड़े --"सरजी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले के हालिया बयान कि "इमर्जेंसी काल में कांग्रेस द्वारा जबरन संविधान की प्रस्तावना में ठूंसे गये शब्द "धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद" को हटाया जाना चाहिए"। इस बयान ने एक नये विवाद को जन्म दे दिया है।
सवाल ये है कि संविधान की प्रस्तावना में इन शब्दों को जोड़ने का औचित्य क्या था!! जबकि संविधान के निर्माण के समय हीं इसमें धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा निहित थी!"
काकाजी, संविधान की अवधारणा में निहित होने के बावजूद कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान,42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के तहत, प्रस्तावना में संशोधन करते हुए पंथनिरपेक्षता को जोड़ा। पंथनिरपेक्षता का तात्पर्य धर्मनिरपेक्षता से है। जिसका अर्थ यह लगाया गया कि भारत सरकार न तो किसी धार्मिक पंथ का पक्ष लेगी और न हीं किसी पंथ का विरोध करेगी। लेकिन दुर्भाग्य है हिंदुओं का! जिस कांग्रेस पर हिंदुओं ने विश्वास किया वो संविधान की मूल भावना का गला घोंटने के क्रम में, इस्लामिक आधार पर विभाजित और हिंदुओं के हिस्से के भारत को गजवा-ए-हिंद करने के षड्यंत्र के तहत, संविधान को हीं इस्लामिक संविधान बना डाला।--मास्टर साहब मुंह बनाये।
एकदम सही बोले हैं मास्टर साहब, दो-दो पापीस्तान ईस्ट और वेस्ट बनाये गये तो बाकी बचे खुचे बीच के भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित होना चाहिए था लेकिन गांधी और नेहरू जैसों की षड़यंत्रकारी कांग्रेस ने वो कभी होने नहीं दिया बल्कि बंटवारे के बाद,वो सारे संवैधानिक प्रक्रम किये जिससे शेष भारत भी मुस्लिम राष्ट्र बन जाये।--कुंवरजी अखबार पलटते हुए।
मुखियाजी, आजादी के बाद से हीं कांग्रेस ने तुष्टीकरण का ऐसा खेल खेला कि आज धर्मनिरपेक्ष भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं की ये स्थिति है कि इनके अयोध्या के श्रीराम मंदिर की सुरक्षा हेतु एनएसजी, काशी विश्वनाथ की सुरक्षा हेतु एटीएस का, वैष्णो देवी की सुरक्षा हेतु सीआरपीएफ की, बाबा अमरनाथ की यात्रा की सुरक्षा हेतु 70 हजार सुरक्षा कर्मी लगाना पड़ रहा है। जबकि एक भी मस्जिद नहीं जिसे सुरक्षा की आवश्यकता हो। --सुरेंद्र भाई मुंह बनाये।
सरजी के पिताश्री स्व.पंडित शम्भु नाथ पाठक ने 1995 में एक पुस्तक "भारत में धर्मनिरपेक्षता,इस लोक के लिए श्राप" लिखा था जिसकी समालोचनात्मक विवेचना,तत्कालीन मुख्य मिडिया श्रोत,बीबीसी पर हुई थी। इस पुस्तक में उन्होंने सिद्ध किया था कि कोई धर्मनिरपेक्ष हो हीं नहीं सकता। सरजी, धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में उनके विचारों को रखिये न!!--डा.पिंटु मेरी ओर देखकर।
डा. साहब, पुस्तक के आधार पर कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्ष का सही अर्थ बहुत कम लोगों को ज्ञात है। पुस्तक में वर्णित धर्मनिरपेक्षता को समझने के पहले संक्षेप में धर्म को समझिये--"प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए, समस्त बुराइयों से परहेज़ करते हुए, परिवार, समाज एवं राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, परमब्रह्म परमेश्वर से प्राणीमात्र के कल्याण की कामना हीं धर्म है।"
धर्म के तीन अंग हैं--
1-सापेक्ष,
2-अध्यात्म,
3-उपासना
धर्म में मुख्यतः दस गुणों की कल्पना की गई है जो सापेक्ष द्वारा प्रगट होता है। यथा सत्य, अहिंसा, त्याग, दया, क्षमा, नैतिकता आदि। :--
"धृति: क्षमा दयोऽ त्रेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:। धीर्विद्यता सत्यमऽ क्रोधो दशकर्म: धर्म लक्षणम्।।"
स्पष्ट है विश्व में सनातन हीं एकमात्र धर्म है बाकि ईसाइयत या इस्लाम किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित व्यवहार के वो पुंज हैं जो निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु,धर्म के विपरित गुणों को धारित करते हैं। यही सनातन धर्म की विशेषता है कि किसी पंथ विशेष के विरुद्ध आजतक जबरन धर्मांतरण,हिंसा या जिहाद जैसे अमानवीय व्यवहार की आज्ञा नहीं देता। सनातन संस्कृति में "सर्व धर्म सम भाव","सर्वे भवन्तु सुखिन:","वसुधैव कुटुंबकम्","अहिंसा परमो धर्म" जैसे प्रतिमानों की प्रधानता है।--मैं चुप हुआ।
सरजी, आपके पिताश्री ने धर्मनिरपेक्षता को किस रूप में परिभाषित किया है!!इसे स्पष्ट किजिये!!--मास्टर साहब मेरी ओर देखकर।
हं, बात साफ करीं जे राउर पिताजी,धर्मनिर्पेक्ष के बारे में का कहनी!!--मुखियाजी भी उत्सुक दिखे।
मुखियाजी, पिताजी ने स्पष्ट किया है कि आम आदमी, निर्पेक्ष और नि:पक्ष को समान अर्थों में लेते हैं जबकि पेक्ष का अर्थ हीन होता है तो निर्पेक्ष का अर्थ विहीनऔर पक्ष का अर्थ एक तरफ या एक भाग होता है तो नि:पक्ष का अर्थ हुआ तटस्थ। कोई तटस्थ हो ही नहीं सकता या तो आप धार्मिक हैं अथवा अधर्मी।
अंग्रेजी शब्द सेक्युलर का हिंदी में हमने अर्थ धर्मनिरपेक्ष या पंथनिरपेक्ष मान लिया जो गुलामी से भी बदतर है। दुनिया के प्रायः सभी मान्य भाषाओं में सेक्युलर का जो अर्थ दिया हुआ है वो है--धर्मनिर्पेक्ष, धर्मविहीन, अधर्म,पापमय,दुनियावी, सांसारिक, धर्म से उदासीन, धर्म की अवहेलना आदि।
हमारे ऋषि,मुनियों ने शास्त्रों में, बहुत पहले हीं धर्मनिरपेक्षता के अवगुणों एवं प्रभावों का वर्णन कर रखा है।----
"शुन:शेषोपनिषद, अध्याय-3,सुक्त-25" ------
"काम: क्रोधो मद: लोभस्य मोह: मत्सर: पशुवृति एव। अनियमन्ते पीड्यन्ति सर्वेषु, धर्मनिरपेक्षस्य षऽठ लक्षणम्।।" अर्थात,काम, क्रोध,मद, लोभ,मोह एवं मत्सर ये धर्मनिरपेक्षता के छः लक्षण हैं। संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता का भारत में केवल और केवल सनातनी हिन्दू हीं शिकार हुए और हो रहें हैं क्योंकि यहां न मुसलमान धर्मनिरपेक्ष होता है और न ईसाई। कांग्रेस ने आजादी के साथ ही ऐसे ऐसे संवैधानिक कानून बनाये जिससे हिंदू और उसकी पीढ़ियां अपने धर्म के प्रति उदासीन बनती जाय लेकिन दुसरी ओर अन्य पंथों को फलने फूलने का भरपूर अवसर मिले।--मैं रुका।
ए सरजी, कांग्रेस के शासनकाल का मैं वो दौर भी देखा हूॅं जिसमें कोई भी हिन्दू, चाहे नेता हो या अधिकारी,अपने या सनातन के पक्ष में कुछ भी कहने से हिचकता था भले हीं उनके विरुद्ध धार्मिक आधार पर,अत्याचार क्यों न हो रहा हो! क्योंकि तुरंत उसके सर पे, संप्रदायिक होने का ठप्पा मढ़ दिया जाता था, उसकी स्थिति कुजाति की बन जाती थी।--डा.पिंटु
हाथ चमकाये।
इसमें दो मत नहीं कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का जो स्वरूप है वो पूर्णतः छद्म धर्मनिरपेक्षता है। क्योंकि यहां किसी पंथ विशेष के पक्ष में तो किसी धर्म विशेष के विरुद्ध बनाये गये धार्मिक कानून, समानता के सिद्धांत का घोर उल्लंघन करता है। खैर,संविधान में पंथनिरपेक्षता और समाजवाद घुसेड़ने के प्रभावों की समीक्षा कल करेंगे।आज इतना हीं, चला जाय।--कहकर मास्टर साहब उठ गये और इसके साथ हीं बैठकी भी......!!!!!!
आलेख - लेखक
प्रोफेसर राजेंद्र पाठक (समाजशास्त्री)