खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) - 03

कौन सा पत्ता पहले खिसक कर एनडीए के महल को धराशायी करेगा.?

Manish Kumar Singh
Manish Kumar Singh
July 29, 2025

मुझे इस बात का दुख होता है कि अपने द्वारा दिये गये समर्थन का, जहां पर अपराध पूरे तरीके से बेलगाम हो चुका है, इस पर नियंत्रण पाना जरूरी हो गया है नहीं तो इस तरीके से बिहार और बिहारियों की जिंदगी से होता हुआ खिलवाड़ बिहार को बहुत बुरे अंजाम में पहुंचा देगा। ये बयान किसी ऐरे गैरे नत्थू खैरे का नहीं है ना ही ये बयान किसी विपक्षी पार्टी के नेता द्वारा दिया गया है। ये बयान एलजेपी प्रमुख चिराग पासवान का है जो दिल्ली दरबार में मोदी सरकार में मंत्री हैं और बिहार ही उनकी राजनीतिक जमीन है जो इस समय विधानसभा चुनाव को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर एक मुद्दा बन चुका है। चिराग पासवान ने मीडिया से चर्चा करते हुए कहा कि बिहार में जिस तरीके से हत्या, अपहरण, लूटमार, डकैती, बलात्कार एक के बाद एक श्रंखलाबद्ध तरीके से हो रहे हैं। अब तो ऐसा लग रहा है कि प्रशासन पूरे तरीके से नाकामयाब है इन घटनाओं को रोकने के लिए। अगर ऐसा ही चलता रहा तो ये आने वाले दिनों में बहुत भयावह परिस्थिति उत्पन्न कर देगा। बड़ी डरावनी स्थिति हमारे प्रदेश में उत्पन्न हो चुकी है। चिराग ने मीडिया से आगे कहा कि जिन परिवारों ने अपनों को खोया है उनके हालात पूछिए, जिन बच्चियों के साथ दुष्कर्म हो रहा है उनके हालात पर गौर कीजिए। इन सब को रोकने की, नियंत्रित करने की जिम्मेदारी तो प्रशासन की है। पासवान ने सवालिया लहजे में पूछा कि कोई भी अपराधी आपके राज्य में आपराधिक घटनाओं को कैसे अंजाम दे रहा है, प्रशासन के रहते हुए। चिराग पासवान ने आरोपित लहजे में कहा कि हो रहे अपराधों में या तो प्रशासन की मिली भगत है या फिर प्रशासन इसमें लीपापोती करने में लगा हुआ है अथवा प्रशासन पूरे तरीके से निकम्मा हो चुका है और इनके बस में कुछ नहीं है।

चिराग पासवान का ये बयान नितीश कुमार की अगुवाई में चल रही डबल इंजन की सरकार और दिल्ली सल्तनत ने मुंह पर तमाचा है। चिराग पासवान की राजनीति की टोटल जमीन बिहार में ही है जिसमें उनका एकमुश्त वोट बैंक भी है जिसको ना तो जातीय समीकरण के आसरे ना ही विकास की राजनीति के आसरे डिगा पाने की स्थिति में फिलहाल तो कोई भी नहीं है। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में चिराग पासवान का कद जितना बढ़ना चाहिए था बढ़ चुका है अब तो विधानसभा चुनाव में उनकी कोशिश अपने वोट बैंक को दूसरे हल्कों में बढ़ाने की है और चिराग पासवान को समझ में आने लगा है कि बिहार में नितीश कुमार के साथ खड़े होकर वोटों में विस्तार तो हो नहीं सकता है। उनको इसकी समझ भी आ गई है कि वे कितना भी ऐलान करते रहें कि दिल्ली दरबार में मेरी बहुत पकड़ और पहुंच है लेकिन इससे बिहार के वोटरों के हालात तो सुधरेंगे नहीं। उसके लिए तो पार्टी को विस्तार देना होगा।

एक छोटे चैनल के साथ बात करती हुई एक नन्ही बालिका ने बिहार में 20 सालों से राज कर रहे सुशासन बाबू के चेहरे पर से नकाब नोच कर भर नहीं फेंका बल्कि नितीश कुमार के घिनौने चेहरे को बड़ी मासूमियत के साथ सबके सामने नंगा कर दिया है। दरभंगा के मधुबनी में होने वाले मखाने को लेकर जिसका जिक्र पिछले दिनों खूब हुआ था वहां के स्कूल में पढ़ने वाली एक सात-आठ साल की बच्ची से जब मीडिया कर्मी ने पूछा कि तुम सुशासन बाबू की सरकार से क्या चाहती हो उसने कंपकंपाती आवाज में कहा कि सरकार स्कूल में दीवार खड़ी करवा दे, छप्पर डलवा दे, बरसात में यहां - वहां भागना पड़ता है, बरसात थमने के बाद जब फिर स्कूल आते हैं तो पढ़ने की खातिर बैठने के लिए सूखी जगह ढ़ूंढ़नी पडती है जो बमुश्किल नसीब होती है, गर्मी में झुलसाती धूप लगती है तो शीतकाल में बहुत ठंड लगती है। बच्ची की कंपकंपाती हुई आवाज बिहार सरकार को सरे बाजार दिगंबर करती है क्योंकि वह बच्ची दलगत और छल प्रपंच की राजनीति से बहुत दूर है।

राजनीतिक गलियारों में पीएम नरेन्द्र मोदी को लंबी-लंबी अविश्वसनीय बातों को फेंकने का सिरमौर माना जाता है तो स्वाभाविक है उनके पिछलग्गू कहां पीछे रहने वाले हैं वह भी मोदी की मौजूदगी में। ऐसा ही वाक्या सामने आया जब पीएम नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री नितीश कुमार की उपस्थिति में बिहार में बीजेपी के कोटे से उप मुख्यमंत्री बने सम्राट चौधरी ने मंच से खुले तौर पर कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले 10 बरस में बिहार को 14 लाख करोड़ रुपये दिए हैं। ऐसा कह कर सम्राट चौधरी ने नितीश सरकार और मोदी सरकार को भृष्टाचार के दलदल में फंसा दिया है। बिहार में पिछले 20 बरस से नितीश कुमार मुख्यमंत्री बने हुए हैं और पिछले दस बरस से बीजेपी नितीश के साथ मिलकर डबल इंजन की सरकार चला रही है। अगर एक बार सम्राट चौधरी की बात को ही सच मान लिया जाय (जबकि यह बात पूरी तरह से अस्वीकार योग्य है) तो फिर आज की तारीख में बिहार को सबसे पिछड़े राज्यों में क्यों गिना जाता है.? मतलब बहुत साफ है कि केन्द्र में मिलने वाला पैसा विकास कार्यों में लगने के बजाय भृष्टाचार की भेंट चढ़ रहा है।

पीएम नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने दसईयों बार खुलेआम कहा है कि एनडीए ताश का महल नहीं है जो एक पत्ता निकल जाने से भरभरा कर गिर जायेगा। एनडीए बहुत मजबूत है और उसके कुनबे में शामिल राजनैतिक दल पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की बिछाई बिसात पर चलते हैं। लेकिन मोदी और शाह द्वारा कही गई बात बीते दिनों की बात हो चली है। आज की स्थिति में जो नजारा नजर आ रहा है अगर उससे एक भी पत्ता सरका तो एनडीए भरभरा कर गिर जायेगी। पहला सवाल तो एक पखवाडे़ के भीतर चंद्रबाबू नायडू के जरिए निकल कर तब आया जब उनने अपने प्रदेश की राजधानी अमरावती के लिए अपने अनुकूल बजट और कार्पोरेट के साथ ही चुनाव आयोग के एसआईआर को लेकर सवाल उठाते हुए कहा कि यह हमें कतई मंजूर नहीं है। दूसरा सवाल नितीश कुमार के साथ जुड़ा हुआ है कि विधानसभा चुनाव के बाद जनता दल यूनाइटेड बचेगी या नहीं बचेगी। क्योंकि अगर चुनाव परिणाम नितीश कुमार के प्रतिकूल रहे तो क्या सब कुछ बीजेपी में शिफ्ट हो जायेगा, जेडीयू के बचे-खुचे सांसद और विधायक बीजेपी में मर्ज हो जायेंगे।

लेकिन इससे हटकर तीसरा सवाल चिराग पासवान को लेकर खड़ा हो गया है जिसमें वे खुले तौर पर ऐलानिया कहने लगे हैं कि जो हालात आज बिहार में दिखाई दे रहे हैं उसके मद्देनजर हमारी पार्टी नितीश कुमार की सरकार को समर्थन कैसे कर सकती है ? तो क्या बिहार चुनाव के पहले ही कोई खेला होगा जिसमें चिराग पासवान को यह लगने लगा है कि उनकी पार्टी एलजेपी अगर बीजेपी और जेडीयू के साथ मिलकर 50 सीटों पर भी चुनाव लड़ती है तो बिहार के भीतर उनकी स्थिति और भी दयनीय हो जायेगी ! भले ही सत्ता में उनकी भागीदारी नहीं है लेकिन अगर सत्ता के साथ खड़े है तो वोटिंग के स्तर पर भागीदारी का संदेश तो बिहार के उन बिहारियों में जायेगा ही जो चुनाव को लेकर आशा और निराशा के बीच झूल रहे हैं। बिहार के भीतर जितने भी स्कूल बिना छप्पर के चल रहे हैं अगर उन सभी में छप्पर डाल दिया जाये तो उस पर अधिकतम खर्चा होगा 60 हजार करोड़ रुपये का। बिहार पुलिस को ताकत और नैतिक बल देने के लिए जो बजट दिया जाना चाहिए उसमें भी अधिकतम एक लाख करोड़ रुपये ही चाहिए, जिसमें जीप, बंदूक, डंडे, पेट्रोल, डीजल सब कुछ आ जाएगा। यानी बिहार के 38 जिलों के इंफ्रास्ट्रक्चर में एक लाख पैंतीस हज़ार करोड़ रुपये से ज्यादा नहीं होगा। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस के निशाने पर अगर कोई है तो वह एकनाथ शिंदे और उनकी पार्टी शिवसेना। एकनाथ शिंदे की पार्टी शिवसेना के कोटे से बने मंत्रियों के सेक्रेटरी की पोस्टिंग मुख्यमंत्री फडणवीस की निगरानी में की जा रही है जिससे मंत्रियों को फ्री हेंड काम करने का मौका न मिल सके। एकनाथ शिंदे के मंत्री जिस तरह से खुद को अपमानित महसूस कर रहे हैं उसके चलते वे सोचने लगे हैं कि दोनों शिवसेना एकबार फिर एकरूप हो जाए।

एनडीए को दरकाने की शुरुआत तो चंद्रबाबू नायडू से शुरू होकर एकनाथ शिंदे और नितीश कुमार से होते हुए अपनी पराकाष्ठा पर चिराग पासवान के जरिए पहुंच चुकी है। क्योंकि बीजेपी ने अपने प्लान के मुताबिक भले ही संयोगवश ही बिहार की वोटर लिस्ट और विधानसभा चुनाव को राष्ट्रीय राजनीति का मुद्दा बना दिया गया है। और अब बिहार में चुनाव नहीं जीतने का मैसेज एनडीए के उन घटक सदस्यों और बीजेपी के भीतर मोदी-शाह से दूरी बनाये हुए उन नेताओं के जमघट के लिए है जो यह मानकर चलते हैं कि जिस दिन चुनाव हारे और खासतौर पर वहां हारे जहां जीतना चाहते थे तब इनके साथ कौन खड़ा होगा ? शायद कोई नहीं। तब स्थिति उनके अनुकूल होगी या सत्ता के प्रतिकूल होगी, यह सवाल तो उठ ही सकता है । नरेन्द्र मोदी, नितीश कुमार 70 प्लस, अमित शाह 60 प्लस हैं। बिहार में बीजेपी के पास सुशील मोदी के बाद एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसके आसरे बीजेपी अपनी जमीन बिहार के भीतर बना सके या उसे उडान दे सके । उन्हें नितीश कुमार का चेहरा चाहिए।

बिहार की राजनीति को साधने के लिए इस समय तीन युवा सामने खड़े हैं। जिसमें तेजस्वी यादव, प्रशांत किशोर और चिराग पासवान शामिल हैं। इनको पता है कि आने वाले समय में राजनीति को नया मोड़ देना है या अपने अनुकूल करना है तो अपने बूते ही करना होगा। अतीत को कांधे पर लाद कर चलने से वोट मिलना असंभव सा है। बिहार की परिस्थितियां कितनी नाजुक हो चलीं है इसका अक्श नीति आयोग की रिपोर्ट दिखाती है जिसका जिक्र तेजस्वी यादव ने विधानसभा में यह कहते हुए किया - नीति आयोग की रिपोर्ट में बिहार सबसे गरीब राज्य है, बिहार में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है, बिहार में सबसे ज्यादा पलायन होता है, बिहार में न कारखाने हैं न निवेश है न उद्योग है, न धंधा है। चिकित्सा, शिक्षा सबसे निचले स्तर पर है, प्रति व्यक्ति आय सबसे कम है, स्कूल ड्राप आउट रेट सबसे ज्यादा है। इसमें यह भी जोड़ दिया जाए कि बिहार दुनिया भर के राज्यों में से अकेला ऐसा राज्य है जहां का किसान दूसरे राज्य में जाकर मजदूर बन जाता है। मनरेगा का बजट सबसे कम है।

तो फिर बिहार और बिहार के चुनाव का मतलब क्या है ? जब नाउम्मीदी और इन परिस्थितियों में बिहार के चुनाव को देश की राजनीतिक सत्ता को गढ़ने या बिगाड़ने की दिशा में खड़ा हो चुका है। बिहार का चुनाव न केवल राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है बल्कि मोदी-शाह की पहचान बिहार चुनाव को जीतने से भी जुड़ गई है। तो कल्पना करें कि अगर बीजेपी बिहार में तमाम हडकंडो (जिसमें चुनाव आयोग का भी कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में सहयोग रहेगा इसके बाद भी) चुनाव हार जाती है तो एक झटके में बीजेपी और एनडीए के सहयोगियों के बीच हडकंप मच जायेगा। उन्हें यह भी समझ आ जायेगी कि मोदी-शाह का जादू खत्म हो गया है। स्वयंसेवकों के जरिए आरएसएस द्वारा बनाई गई राजनीतिक जमीन भी खिसक चुकी है तथा जिस तरह से मोदी की रैलियों में नारे लगाने के लिए दूसरे राज्यों से लोगों को आयातित किया जाता है वह भी बेमानी साबित हो जायेगा। इलेक्शन कमीशन के द्वारा एसआईआर के जरिए बनाई जा रही नई वोटर लिस्ट और इलेक्शन कमीशन की सारी मशक्कत के बाद भी अगर बीजेपी बिहार में चुनाव हार जाती है तो फिर बीजेपी को ही मोदी-शाह की कितनी जरूरत होगी ? एनडीए को मोदी-शाह की कितनी जरूरत होगी ? तय है कि मोदी-शाह का गढा गया जबरिया तिलस्मी औरा एक झटके में बिखर जायेगा।

चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि देश में सबसे कम वोटिंग बिहार में होती है, बिहार में सबसे कम वोटिंग राजधानी पटना में होती है और पटना में सबसे कम वोट (30% से भी कम) अपर और मिडिल क्लास की आबादी वाले क्षेत्रों में पड़ते हैं। लेकिन चुनाव आयोग ने वोटिंग पर्सेंटेज बढ़ाने के लिए कभी कोई मशक्कत नहीं की। सवाल यह है कि क्या एसआईआर के जरिए नई वोटर लिस्ट बनाने का खेला इसलिए किया जा रहा है कि तकरीबन 30 फीसदी उन वोटरों के नाम हटा दिए जायें जो बीजेपी की जीत के रास्ते में कांटा बने हुए हैं ताकि बीजेपी बिहार में चुनाव जीत जाय और जीत के बाद मोदी-शाह कह सकें कि हम हैं तो सब कुछ मुमकिन है। चुनाव आयोग ने जो किया हमारी जीत के लिए किया इसमें किसी को दिक्कत क्यों होनी चाहिए? सच तो ये है कि बिहार खुली हवा में सांस लेना चाहता है। हाथ में डिग्री लिए युवा रोजगार चाहता है। खेतिहर किसान अपने अनाज की न्यूनतम कीमत तय करना चाहता है। बिहार का लोग मजदूरी करने के लिए बाहर नहीं जाना चाहता यानी वह बिहार में ही काम चाहता है। क्या ये सब कुछ हो सकता है बिहार में ?

डूबते हुए राजनीतिक भविष्य के बीच उगते हुए सूर्य की तर्ज पर बिहार को देखने की शुरुआती चाहत लिए फिलहाल तीन युवा बिहार की चुनावी नैया को खेने के लिए हाथ में पतवार लिए तैयार खड़े हैं। तेजस्वी यादव चुनाव ना लड़कर भी बड़ी राजनीतिक चुनावी बिसात को बिछा सकते हैं। प्रशांत किशोर राजनीतिक तौर पर किसी पार्टी के साथ समझौता करके नई बिसात बिछाते हुए अपने  मुद्दों को राजनैतिक पटल खड़ा कर सकते हैं। चिराग पासवान एनडीए को लेकर कोई बड़ा निर्णय ले सकते हैं यानी चुनाव के पहले ही चिराग पासवान बीजेपी को खारिज कर सकते हैं। और अगर चिराग पासवान एनडीए से बाहर आते हैं तो उसका असर महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे, आंध्रप्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और बिहार में नितीश कुमार की पार्टी पर भी पड़ेगा। सबको पता है कि देश की आर्थिक स्थिति कैसी है। सबको मोदी-शाह की तेज होती धड़कनें सुनाई देने लगी हैं दिल्ली की डगमगाती गद्दी को सम्हालते हुए। यानी इसका अह्सास मोदी सरकार में ऐश कर रहे जेडीयू, एकनाथ शिंदे की शिवसेना के मंत्रियों और खुद चिराग पासवान को हो चला है। इसीलिए चंद्रबाबू नायडू, एकनाथ शिंदे, चिराग पासवान और नितीश कुमार के जहन में यह सवाल बड़ा होता चला जा रहा है कि वो कौन सा पहला पत्ता होगा जिसके खिसकने से एनडीए रूपी ताश के पत्तों से बना हुआ शीशमहल भरभरा कर बिखर जायेगा।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता 
स्वतंत्र पत्रकार

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